Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm Author(s): Kalapurnsuri Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 52
________________ सामायिक की विशालता २७ निष्कर्ष यह है कि जब आत्मा का उपयोग विशुद्ध होता है तब चारों सामायिकों की प्राप्ति होती है । उपयोग क्या है ? उपयोग1 जीव का लक्षण है। जीव लक्ष्य है, उपयोग लक्षण है । लक्षण के द्वारा लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । आत्मा अनादि-सिद्ध, स्वतन्त्र द्रव्य है और वह अनन्त गुण-पर्यायमय है। उन सब में 'उपयोग' प्रधान है। इसके द्वारा ही जड़ और जीव में भेद किया जा सकता है, क्योंकि न्यूनाधिक अंश में शुभ अथवा अशुभ रूप में यह उपयोग समस्त आत्माओं में सदा विद्यमान होता है, जबकि जड़ में यह तनिक भी नहीं होता। उपयोग अर्थात् बोध रूप व्यापार । यह बोध-रूप व्यापार चेतना शक्ति के कारण ही होता है । जड़ में चेतना शक्ति नहीं होने से उसमें बोध क्रिया-उपयोग भी नहीं है। ज्ञान आदि गुण तथा औपशमिक आदि भाव भी जीव के लक्षणों के रूप में बताये गये हैं। फिर भी 'उपयोग' का पृथक कथन जो तत्वार्थ सूत्र में श्री उमास्वाति महाराज ने किया है, उससे ज्ञात होता है कि उपयोग जीव का असाधारण धर्म है, जो समस्त आत्माओं में सब काल साथ रहने वाला है। जबकि औपशमिक आदि भाव जीव का स्वरूप होते हए भी वे एक साथ समस्त जीवों में नहीं होते और समस्त कालों में भी नहीं होते। समस्त आत्माओं में समस्त कालों में स्थिर रहने वाला एक जीवत्व रूप पारिणामिक भाव है और उसका फलितार्थ उपयोग ही होता है। इस उपयोग के मुख्य दो भेद हैं जिनका सामान्य निर्देश पहले किया जा चुका है । अब हम उस पर विशेष विचार करेंगे। (१) साकार उपयोग रूप बोध ग्राह्य पदार्थ को विशेष रूप से बतलाता है और उसे ज्ञान अथवा सविकल्प बोध भी कहते हैं। (२) निराकार उपयोग रूप बोध-ग्राह्य पदार्थ को सामान्य रूप से बताता है और उसे दर्शन तथा निर्विकल्प बोध भी कहते हैं । पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान की अपेक्षा से साकार उपयोग के आठ भेद और चार दर्शन की अपेक्षा से निराकार उपयोग के चार भेद बताये गये हैं। इस तरह उपयोग के कुल बारह भेद होते हैं। इस विराट विश्व में अधिकतर जीव अज्ञान आदि के कारण अशुभ १ "उपयोगो लक्षणम्" –तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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