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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
स्थिति में व्यवहार करते हुए जीवों में चारों सामायिक दो में से एक प्रकार से न हो, अर्थात् नवीन प्राप्त नहीं कर सकें और पूर्व प्राप्त स्थायी न हो; क्योंकि उस स्थिति में जीव के भाव अत्यन्त संकुचित होते हैं, अतः समता भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान अनुत्तरवासी देव सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक के पूर्वप्रतिपन्न अवश्य होते हैं और सातवीं नरक के जीव छः माह की आयु शेष रहती है तब उस प्रकार की विशुद्धि के योग से सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक प्राप्त कर सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न होते हैं । जघन्य आयुष्य- क्षुल्लक भव वाले निगोद के जीवों को चारों सामायिक दोनों प्रकार से नहीं होती । आयुष्य के अतिरिक्त सातों कर्म की जघन्य स्थिति बाँधने वाला क्षपक श्रेणी स्थित जीव देशविरति के अतिरिक्त तीनों सामायिक का 'पूर्वप्रतिपन्न' होता है और समस्त कर्मों की मध्यम स्थिति में रहे जीव चारों सामायिक को प्राप्त कर सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न भी होते हैं ।
(१४) वेद द्वार - वेद तीन हैं- पुरुष वेद, स्त्री वेद और नपुंसक वेद । इन तीनों वेदों में चारों सामायिक नवीन प्राप्त हो सकती हैं और पूर्व प्राप्त की हुई नियमा होती हैं । अवेदी (तीनों वेदों के उदय एवं अनुभव से रहित ) आत्मा श्रुत, सम्यक्त्व एवं सर्वविरति की पूर्वप्रतिपन्न होती है ।
(१५) संज्ञा द्वार - आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह इन चारों संज्ञा वाले जीवों को दोनों प्रकार से चारों सामायिक प्राप्त हो सकती हैं ।
(१६) कषाय द्वार - क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों वाले जीव चारों सामायिक के प्रतिपत्ता और पूर्वप्रतिपन्न होते हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय आदि के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम से सम्यक्त्व आदि सामायिक प्राप्त होती है, फिर भी जीव जहाँ तक सम्पूर्ण कषाय रहित स्थिति को प्राप्त नहीं हुआ हो तब तक वह 'राकषायी' कहलाता है ।
अकषायी 'छद्मस्थ वीतराग' कहलाते हैं; वे सम्यक्त्व, श्रुत और सर्वविरति के पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं होते ।
कर्म की स्थिति का सूक्ष्म ज्ञान विशिष्ट ज्ञानी को ही हो सकता है, फिर भी यहाँ स्थूल दृष्टि से वेद, संज्ञा और कषाय (जो सबको अनुभवगम्य हैं) की मन्दता का आश्रय लेकर सामायिक प्राप्ति की बात कही गई है । अन्यथा इन तीनों की उत्कृष्ट अवस्था में तो कदापि समता भाव प्रकट नहीं
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