________________
३. सामायिक प्राप्ति का पूर्वाभ्यास
सामायिक धर्म की प्राप्ति के लिये उत्सुक व्यक्ति को सर्वप्रथम अपनी आत्मा को संयम में, अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में अथवा सत्रह प्रकार के (इन्द्रिय-कषाय आदि-जय रूप) संयम में स्थिर करनी चाहिये ।
नियम स्वरूप अष्ट प्रवचन माता की गोद में जीवन समर्पित कर के क्षमा, नम्रता, सरलता आदि गुणों का विकास करना चाहिये ।
अनशन आदि बाह्य तप से काया को अच्छी तरह कस लेना चाहिये ताकि चाहे जैसे उपसर्ग आयें तो भी हमारी देह तनिक भी पीछे नहीं हटे और हर्षपूर्वक उन उपसर्गों को सहन कर सके । हमें आभ्यन्तर तप-प्रायश्चित्त, गुरु-भक्ति और स्वाध्याय के द्वारा अपने चित्त की वृत्तियों को निर्मल करना चाहिये । निर्मल चित्त के द्वारा परमात्मा के साथ एकात्मता में (आत्मा) और परमात्मा एक है ऐसी तादात्म्यता करने के लिये उनके ध्यान में तन्मय होकर कायोत्सर्ग करके कायिक चंचलता पर भी नियन्त्रण रखना चाहिये ।
विश्व के समस्त जीवों के प्रति समभाव रखकर उन्हें आत्मवत् मानना चाहिये । क्षुद्रतम जन्तु भी सुख प्राप्त करना और दुःख से मुक्त होना चाहता है और उसके लिये यथाशक्ति सतत पुरुषार्थ भी करता रहता है । ऐसे प्राणियों को हमारे द्वारा होने वाली वेदना कितनी दुःखदायी होती होगी, उसका अनुमान हम अपने उपर आने वाली भाँति-भाँति को विपत्तियों से सरलता पूर्वक लगा सकते हैं ।
अतः अपने मन, वचन और काया से किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न हो उसका हमें अत्यन्त ध्यान रखना चाहिये ।
मन से भी किसी व्यक्ति का हम अहित न सोचलें इसकी भी हमें पूर्ण सावधानी रखना आवश्यक है। जब तक अपनी ओर से दूसरों को पीड़ित करने की प्रवृत्ति चलती रहेगी, तब तक अपनी पीड़ा कदापि नहीं मिटेगी ।
दूसरों को अभय किये बिना हम स्वयं निर्भय नहीं हो सकते ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org