________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 अथ तृतीयज्ञानं द्वितीयज्ञानसंवादि तदा प्रथमस्याऽप्रामाण्यनिश्चयः, स तु तत्कृतोऽभ्युपगम्यत एव / किंतु द्वितीयस्य यदप्रामाण्यमाशंकितं तत् तेनाऽपाक्रियते, न पुनस्तस्य द्वितीयप्रामाण्यनिश्चायकत्वे व्यापारः / यत्र त्वभ्यस्ते विषयेऽर्थतथात्वशंका नोपजायते तत्र बलादुत्पद्यमाना शंका तत्कतुरनर्थकारिणीत्यावेदितं वार्तिककृता प्राशंकेत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् / स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत् // न चैतदभिशापमात्रम् , यतोऽशंकनीयेऽपि विषयेऽभिशंकिनां सर्वत्रार्थाऽनर्थप्राप्तिपरिहाराथिनामिष्टानिष्ट प्राप्तिपरिहारसमर्थप्रवृत्त्यादिव्यवहाराऽसंभवाद् न्यायप्राप्त एव क्षयः, स्वोत्प्रेक्षितनिमित्तनिबन्धनाया प्राशंकायाः सर्वत्र भावात् / निश्चय स्वत: ही हो जाता है। इसी प्रकार तृतीय ज्ञान में भी यदि किसी कारण से संशय उत्पन्न हो जाय और चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा करनी पड़े तो वहां भी युक्ति का प्रकार यही है / कहा भी है-एवं त्रिचतुर....० इत्यादि, तात्पर्य-तीन चार ज्ञानों की उत्पत्ति से अधिक ज्ञान की आकांक्षा नहीं होती है / इतने से ही पूर्वज्ञान में स्वतः प्रामाण्य व्याप्त हो जाता है / अर्थात् अप्रामाण्यशंका से अबाध्य बन जाता है। जहाँ पर ज्ञान के कारण दूषित होता है और जहाँ बाधक ज्ञान होता है वही ज्ञान मिथ्या ज्ञान है। इसका भी यही विषय है अर्थात् बाधक प्रत्यय क्या करता है ? यही कि जैसे पूर्व में संवादी प्रत्यय अप्रामाण्य की शंका का निवर्तक होता है वैसे वहां भी बाधक प्रत्यय अप्रार शंका की निवृत्ति करके अप्रामाण्य का निर्णय करता है किन्तु प्रामाण्य को छूता नहीं है। (चतुर्थ....) यहां जो चतुर्थज्ञान की अपेक्षा कही गयी है वह भी अभ्युपगमवाद से कही गयी है अर्थात् अर्थज्ञान को सुदृढ करने की अपेक्षा से चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा मान ली जाय तो भी प्रामाण्य के स्वतोभाव का निषेध नहीं हो सकता-- इस दृष्टि से उसको कहा गया है। परमार्थ से तो चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। यदि तृतीय ज्ञान द्वितीय ज्ञान का संवादी हो, [ यह वहां बनता है जहां प्रथम ज्ञान अप्रामाण्यज्ञानास्कंदित हुआ और द्वितीयज्ञान अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित हुआ वहाँ प्रवृत्त्यादि के बाद तृतीय ज्ञान संवादी उत्पन्न होता हो ] तब प्रथम ज्ञान के अप्रामाण्य का निश्चय होता है अर्थात् प्रथम ज्ञान में हुए अप्रामाण्य संदेह का निश्चय होता है और वह अप्रामाण्यनिश्चय संवादि तृतीय ज्ञान के द्वारा उत्पन्न हुआ है यह तो स्वीकार लिया जाता है परन्तु दूसरे ज्ञान में यदि अप्रामाण्य की शंका हुई हो, तो उसके निवारणार्थ भी तृतीय ज्ञान की आवश्यकता है, यानी उस शंका को तृतीय ज्ञान दूर करता है किन्तु यह ध्यान रखें कि द्वितीय ज्ञान के प्रामाण्य को निश्चित करने में तृतीय ज्ञान का कोई व्यापार नहीं है। __(यत्र त्वभ्यस्ते....) जहां विषय अभ्यस्त यानी परिचित रहता है वहां ज्ञान में विषय के यथार्थ स्वरूप की शंका नहीं होती। यदि वहां भी हठ से शंका की जाय तो वह शंका करने वाले का ही अनिष्ट करती है। इस तत्त्व को वात्तिककारने भी प्रकट किया है- (आशंकेत....इत्यादि) जो मूढताअज्ञानता के कारण बाधक की प्रतीति न होने पर भी ज्ञान के अयथार्थ होने की शंका करते चलता है वह संशयात्मा समस्त व्यवहारों में नाश पाता है।