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Vol. XLI, 2018
ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना
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है, उसी प्रकार अज्ञान से उपहित चैतन्य अपनी प्रधानता के कारण निमित्त कारण एवं अपनी उपाधि की प्रधानता के कारण उपादान कारण होता है । शांकर दर्शन के अनुसार माया के बिना परमेश्वर का स्रष्टुत्व सिद्ध नहीं होता । २. सृष्टि : ईश्वर की लीला
शांकर दर्शन में ईश्वर को जगत् का स्रष्टा रूप से विवेचित किया गया है । श्रुति में भी "सोऽकामयत् बहु स्यां प्रजायेयेति"८ आदि वाक्यों में परमेश्वर के अनेक रूपों में उत्पन्न होने की इच्छा का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह विचारणीय है कि जो परमेश्वर आप्तकाम है, उसमें सृष्टि-उत्पत्ति की इच्छा किस प्रकार उत्पन्न होती है। उक्त शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए शंकराचार्य ने कहा है कि सृष्टि ईश्वर लीला का फल है । इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त देते हुए कहा गया है- क्रीडाक्षेत्र में प्रवृत्तियाँ किसी दूसरे प्रयोजन की अभिलाषा न करके केवल लीला-रूप ही होती हैं और जिस प्रकार उच्छास, प्रवास आदि किसी बाह्य प्रयोजन की अभिसन्धि के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार किसी अन्य प्रयोजन की अपेक्षा के बिना स्वभाव से ही ईश्वर की भी केवल लीलारूप प्रवत्ति कही जायेगी। यदि कहा जाये कि लोक में लीलाओं में भी किसी प्रकार का सूक्ष्म प्रयोजन देखा जा सकता है तो भी ईश्वर लीला के सम्बन्ध में किसी सूक्ष्म प्रयोजन की उत्प्रेक्षा करना संभव नहीं होगा । क्योंकि जो ईश्वर पूर्णकाम है उसकी लीला में किसी प्रकार का प्रयोजन नहीं देखा जा सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सृष्टि लीलाविधायी ईश्वर के स्वभाव का फल है ।
३. सृष्टि-वैषम्य : ईश्वरकृत नहीं
पुनश्च यदि आप्तकाम एवं निःस्पृह ईश्वर जगत् का स्रष्टा है तो उसकी सृष्टि में वैषम्य किस प्रकार मिलता है, यह भी विचारणीय है । वस्तुतः सृष्टि-वैषम्य स्पष्ट है, क्योंकि संसार में कोई अत्यन्त ऊँचा है, कोई मध्यम है और कोई नीच भी है। सृष्टि की उक्त विषमता का कारण शंकराचार्य ने विस्तारपूर्वक वर्णित किया है । शंकराचार्य का कथन है कि ईश्वर निरपेक्ष होकर सृष्टि का निर्माण नहीं करता, वरन् वह धर्म और अधर्म की अपेक्षा करके सृष्टि का निर्माण करता है ।१० सृज्यमान प्राणियों के धर्म और अधर्म की अपेक्षा से सृष्टि विषम होती है । अतः ईश्वर का कोई अपराध नहीं है । ईश्वर को तो पर्जन्य के समान समझना चाहिए । जिस प्रकार व्रीहि, यव आदि की सृष्टि में पर्जन्य साधारण कारण है और ब्रीहि, यव आदि की विषमता में उस बीज में रहने वाली सामर्थ्य असाधारण कारण है, उसी प्रकार देव, मनुष्य आदि की सृष्टि का ईश्वर साधारण कारण है । देव, मनुष्यादि की विषमता में तो तत्तत् जीवों में रहने वाले कर्म असाधारण कारण होते हैं । इस प्रकार ईश्वर कर्म की अपेक्षा रखने से वैषम्य और नैपुण्य रूप दोषों का भाजन नहीं है। अनादि काल से पूर्व संचित साधु या असाधु वासनाओं के कारण पुरुष स्वभाव से ही साधु-असाधु कर्मों में प्रवृत्त होता है। अतः ईश्वर इसमें साधारण हेतु है । इसलिए ईश्वर को पक्षपातपूर्ण स्रष्टा नहीं कहा जा सकता है ।११