Book Title: Sambodhi 2018 Vol 41
Author(s): J B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 165
________________ 156 रीतिका गर्ग SAMBODHI भावना का अपूर्व सम्मिश्रण है। अप्रत्यक्ष रूप से इस शैली पर पाश्चात्य प्रभाव भी पड़ा जिससे चित्रों की सुन्दरता और कोमलता में श्रीवृद्धि हुई है। कांगड़ा घाटी के आरम्भिक इतिहास के बारे में प्रमाणिक सामग्री का अभाव है। वहाँ के सामाजिक जीवन में जब शासन व्यवस्था का आरम्भ हुआ उस प्राचीन युग में वहाँ अनेक ठकुरातियाँ थीं, जो सामन्तों, राणाओं और ठाकुरों के बीच बंटी हुई थीं। वे अपनी सीमाओं को बढ़ाने के लिए तथा अपना बल प्रदर्शन करने के उद्देश्य से परस्पर लड़ा करते थे। कभीकभी बाहर से आकर कोई शक्तिशाली क्षत्रिय राजा इन सामन्तों तथा ठाकुरों को पराजित करके उन्हें अपने अधीन कर लेता था और वे उसको कर दिया करते थे । कांगड़ा के प्राचीनतम राजवंशों में 'कटोच राजवंश का नाम मिलता है जिसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में 'ब्राह्मण-पुराण' में एक कथा इस प्रकार मिलती है - असुरों के विनाश में असमर्थ देवताओं ने एक शक्तिशाली पुरुष की रचना की तथा भगवती की कृपा से उसका जन्म हुआ। इस मानव को भूमिचंद कहा गया जिसने दैत्यों का विनाश किया। देवताओं ने प्रसन्न होकर इसे त्रिगर्त (जालंधर) का राज्य प्रदान किया एवं देवलोक के गायनाचार्य पद्मकेतु की लड़की से इनका विवाह किया। त्रिगर्त संघ के अन्तर्गत कांगड़ा भी आता है जो कटोच राजवंश की राजधानी थी। दसवीं शताब्दी के अन्त में या ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ में जब पंजाब पर मुहम्मद गजनवी का भयंकर आक्रमण हुआ तो कटोच राजवंश ने अपनी सुरक्षा के लिए नगरकोट (कांगड़ा) में आश्रय लिया, क्योंकि नगरकोट उस युग का सर्वाधिक सुदृढ़ स्थान था। किन्तु अन्त में (कांगड़ा) नगरकोट के किले पर भी गजनवी का अधिकार हुआ और वह लगभग ३० वर्षों तक बना रहा। अन्त में दिल्ली के शासक पर्णभोज की सहायता से कटोच राजा ने चार मास के घमासान युद्ध के बाद गजनवी के सामन्तों से कांगड़ा का किला छुड़ाकर अपने अधिकार में किया। बाद में कांगड़ा दुर्ग पर मुहम्मद तुगलक, शेरशाह सूरी, जहाँगीर, रणजीतसिंह और गुों के भयंकर आक्रमण होते रहे और इस प्रकार उसके इतिहास की उदयास्त की लम्बी कहानी रही । कांगड़ा में कटोच राजवंश की स्थिति कई सौ वर्षों तक बनी रही। पृथ्वीचंद के बाद पूरनचंद तथा तदन्तर रूपचंद ने गद्दी को संभाला। इसके बाद लगभग बीस उत्तराधिकारियों के बाद सन् १७५१ ई. में घमण्डचंद कांगड़ा की गद्दी पर बैठा। नाम के अनुरूप ही उसका स्वभाव भी था। इस समय तक मुगलों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी जिसका लाभ उठाकर घमण्डचंद ने उन समस्त क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया जो उसके पूर्वजों के हाथ से निकल गये थे । घमण्डचंद के पश्चात् उसका पुत्र तेगचंद गद्दी पर बैठा किन्तु एक वर्ष शासन करने के पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया। अपने स्वर्गवासी पिता के बाद १७७५ में कांगड़ा का किला भी दस वर्षीय संसारचन्द के हाथों में आ गया। समय के सरकने के साथ-साथ संसारचन्द का प्रभुत्व समस्त पहाड़ी रियासतों पर हो गया और उनकी महत्वाकांक्षा यहाँ तक बढ़ गयी कि उनके दरबार में अभिनन्दन भी लाहौर परापत कहकर होने लगा जिसका अर्थ है लाहौर प्राप्त हो । बाल्यकाल से ही चित्रकला की ओर उसकी तीव्र अभिरूचि थी तथा वह चित्रों का संकलन कर उनका निरीक्षण किया करता था। राजा का यह चित्र प्रेम बराबर बना रहा एवं उसके राज्य में कला

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