Book Title: Sambodhi 2018 Vol 41
Author(s): J B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 182
________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान 173 मन शक्ति से लबालब भर जाता है। रोगों से लड़ने की शक्ति, जिसे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं, अपने आप प्रखर हो जाता है । मनुष्य में नये जीवन का संचार होने लगता है । व्यक्तित्व को उच्च स्तर पर पहुँचा देता है और जब अशुभ, निराशाजनक, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध आदि के विचार आते हैं तो वे रसायन सूख जाते हैं और शरीर में कई तरह के विष उत्पन्न होकर उसे क्षीण करते जाते हैं। जैन धर्म में भाव कर्म ही द्रव्य कर्म का कारण है। पं. दलसुख मालवणिया ने द्रव्य कर्म और भाव कर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि भावनात्मक क्रियाएं भाव कर्म और पौद्गलिक अर्थात् कर्म वर्गणा के पुद्गल द्रव्य कर्म है । इन दोनों के मध्य परस्पर कार्य-कारण भाव है । आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्री में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भावकर्म को 'दोष' के नाम से अभिहित किया है। चूंकि द्रव्य-कर्म आत्म-शक्तियों के प्रकटन को रोकता है, अतः वह आवरण है और भाव-कर्म स्वयं आत्मा की ही विभावस्था है, अतः वह दोष है ।१२ जब द्रव्य कर्म का उदय होता है तब विभिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और वही भाव पुनः नये कर्मों को आकृष्ट करके आत्मा के साथ बान्धता है अर्थात् पूर्व का भाव-कर्म नये द्रव्य-कर्म बन्ध का कारण बनता है और वही द्रव्य-कर्म का उदय नये भाव-कर्म का निमित्त बनता है। ___ कैसे द्रव्य-कर्म का उदय भाव-कर्म को उत्पन्न करता है ? इसे दृष्टान्त के माध्यम से समझ सकते हैं। पूर्व बद्ध मोहनीय कर्म उदय में आता है तब क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के उत्पन्न ने की संभावना होती है । यदि जीव शुभ भावों में स्थिर रहे तो द्रव्य-कर्म से नये भाव-कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु चंचल चित्त प्राणी नये भाव-कर्म बांध लेता है। इसी सिद्धान्त को आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु ग्रंथ में भिन्न प्रकार से समझाते हुए कहा है कि पूर्वकृत कर्म पुरुषार्थ है, जब कि वर्तमान में उदित कर्म भाग्य या नियति है। अतः द्रव्य कर्मोदय के समय यदि जीव पुरुषार्थपूर्वक मन को समभाव में स्थिर रखे तो नवीन कर्म-बन्ध की श्रृंखला समाप्त हो जाती है । इस प्रकार बारम्बार समभाव में स्थिर रहने के अभ्यास से संवर और निर्जरा करता हुआ जीव कर्म-क्षय करता है एवं परंपरा से सद्गति और मोक्ष को प्राप्त करता है । इस सारी प्रक्रिया में भाव की भूमिका प्रमुख है। ___ जैन धर्म में एक अन्य प्रकार से भी चिन्तन किया गया है। धर्म को चार विभाग में विभाजित करते हुए कहा है कि दान, शील, तप और भाव - ये चार धर्म हैं । १. दान अर्थात् अपने धन का दूसरों के लिए त्याग करना । २. शील अर्थात् जीवन को संयमित करना । ३. तप अर्थात् कर्मक्षय हेतु अन्न आदि का - भोजन आदि का त्याग या संक्षेप करना । ४. भाव अर्थात् मन में शुभ एवं पवित्र भाव भाना । ये चारों धर्म जीवन को उन्नत बनाने वाले हैं । तथापि शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है कि भाव रहित

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