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174 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री
SAMBODHI दान, शील और तप फलदायी नहीं बनते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कल्याण मंदिर स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए इसी तथ्य को स्पष्ट किया है -
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या, जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं,
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलंति न भावशून्याः ॥१३ यह श्लोक स्पष्ट रूप से सूचित करता है कि भाव शून्य क्रिया निष्फल होती है।
मनोविज्ञान के कई प्रयोग भावों की चमत्कारी शक्ति को अभिव्यक्त करते हैं। यदि पानी को अमृत मानकर पिया जाय तो जल औषधिय गुण युक्त बन जाता है और जीवन हेतु विशेष लाभदायी सिद्ध होता है । जापानी वैज्ञानिकों ने पानी पर इसी प्रकार का एक प्रयोग किया था, जिसके परिणाम
आश्चर्यकारी थे । उन्होंने दो अलग-अलग ग्लास में पानी भरकर रखा । एक ग्लास पर 'प्रेम' का लेबल चिपकाया गया और दूसरे पर 'घृणा' का । चौबीस घंटे के पश्चात् उस पानी का वैज्ञानिक परीक्षण करने पर पाया गया कि जिस ग्लास पर 'प्रेम' का लेबल लगाया था उसमें स्वास्थ्य-वृद्धिकारक तत्त्वों की मात्रा बढ़ गयी थी और 'घृणा' का लेबल युक्त ग्लास में जहरीले तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि हुई थी। जहरीले तत्त्वों वाला पानी शरीर को नुकसान करने वाला बन चुका था और 'प्रेम' लिखा हुआ पानी अमृतमय बन चुका था । यह तो केवल सामान्य भावों का प्रभाव था । किन्तु यदि विशेष भावपूर्वक प्रयोग किया जाये तो इससे भी विशेष प्रभाव संभवित है।
योगदृष्टिसमुच्चय१४ में अष्टांगयोग का वर्णन किया गया है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये आठ योग के अंग हैं । यम व्रत स्वरूप है । नियम जीवन को अनुशासित करता है । आसन शरीर को सुदृढ़ बनाता है। प्राणायाम नाड़ी शुद्धि करता है । प्रत्याहार
यों को विषयों से उन्मुख करके स्व में ले आता है। धारणा मन के भावों को घनीभूत करके इच्छित फल प्राप्ति में निमित्त बनती है । ध्यान एकाग्रता है और समाधि समत्व की प्राप्ति है।
इन आठ अंगों में धारणा का सम्बन्ध भावना के साथ है । जिस प्रकार भावना में किसी एक विषय पर गहन चिन्तन किया जाता है । उसी प्रकार धारणा में किसी एक वस्तु पर भावों को केन्द्रित करके उसको परिवर्तित किया जाता है । कविराज महोपाध्याय गोपीनाथ 'मनुष्य की लोक यात्रा' नामक ग्रंथ में स्वामी सिद्धेश्वरानंदजी के जीवन चरित्र का वर्णन करते हैं । वहाँ उन्होंने लिखा है कि स्वामी सिद्धेश्वरानंदजी कभी भी किसी भी पदार्थ को क्षण-मात्र में हाजिर कर देते थे । सभा में कोई वस्त्र की अपेक्षा करता तो वे क्षणवार में उसी प्रकार का वस्त्र वहाँ उपस्थित कर देते थे । न केवल वस्त्र अपितु खाने-पीने आदि की सामग्री की अभिलाषा करने पर वहाँ वह सामग्री भी उपलब्ध करवा देते थे । यह एक आश्चर्यकारी घटना है । किन्तु योगमार्ग का सूक्ष्म चिन्तन करने पर यह स्पष्ट बोध होता है कि यह धारणा का ही प्रभाव है । धारणा करके वे तद्-तद् वस्तुओं को उसी समय आहूत कर सकते थे। धारणा भी भावना का गहन स्वरूप है।