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Vol. XLI, 2018
आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान
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भक्ति योग में भी भक्त भगवान के पास भाव भरे स्तवन या भक्ति गीत गाता है तब चमत्कार निर्मित होते हैं । नरसिंह महेता, मीराबाई एवं जैन कवि मूलचन्दजी के जीवन की घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर पाया जाता है कि इन भक्तों ने भावों की चरम सीमा तक पहुँचकर अपने ऊपर आये दुखों, आपत्तियों एवं कष्टों को सहजता एवं सरलता से पार कर दिया था । हमारी सुषुप्त शक्तियों को जागृत करके अपार लाभ लिया जा सकता हैं।
इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि भावनाओं के द्वारा जीवन में अचिन्त्य लाभ हो सकता है, इन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि शुभाशुभ भावनाओं का प्रभाव जीवन पर शुभाशुभ होता है। इस शोध प्रबंध में मैंने जैन धर्म में वर्णित अनित्य आदि द्वादश भावनाओं एवं मैत्री आदि चार भावनाओं का संक्षेप या विस्तार से वर्णन करके उनके महत्त्व को स्थापित किया है । इन भावनाओं में से आद्य छह भावनायों का स्वरूप चिन्तनात्मक है एवं पश्चातवर्ती छह भावनाएँ तत्त्वचिन्तनात्मक है एवं मैत्री आदि भावना चतष्क का सम्बन्ध व्यवहार जीवन से है।
___अनित्य आदि भावना षट्क पदार्थ के स्वरूप को प्रकट करके उसके प्रति हमारे मन में पैदा होने वाले राग-द्वेष और मोह का नाश करती हैं । आश्रव आदि भावना षट्क तत्त्वचिंतन के द्वारा आत्मजागृति की दिशा में अग्रसर करती हैं। इन भावनाओं का निरन्तर अभ्यास करने से अचिन्त्य लाभ हो सकता है। आगम एवं आगमेतर साहित्य में वर्णित अनेक दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है कि साधकों ने भावनाओं के द्वारा उपसर्ग एवं परिषहों में स्थिरता प्राप्त करके अपने जीवन को धन्य बनाया था । इन सबसे यही स्पष्ट होता है कि मन में जो भाव उत्पन्न होता है उनका प्रभाव जीवन में निश्चित देखा जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि भावनाओं का मनोविज्ञान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । आज के मनोविज्ञान ने प्रयोग के आधार पर जो तथ्य हमारे सामने रखे है वही तथ्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं और दृष्टान्तों में भी पाये जाते है । सन्दर्भ :
१. तत्त्वार्थसूत्र, २/११ २. वही, २/३७ ३. कर्म-प्रकृति, पृ. ५० ४. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ७४
भारतीय आचारदर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ५०५
चरक संहिता, शरीर स्थान, १/२० ७. तत्त्वार्थसूत्र, ९/७ ८. पंचम कर्मग्रन्थ, गाथा ३७, ३८ ९. योगशास्त्र, ४/३८