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Vol. XLI, 2018
कांगड़ा शैली में नायिका-भेद अंकन
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एवं शिल्प ने चतुर्दिक उन्नति की। उसने कलाकारों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया तथा उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया । वास्तव में कांगड़ा के इतिहास में १७८६ से १८०५ तक का समय स्वर्णिम रहा। काफी संख्या में स्वर्णकार, सूत्रगाही, कर्मकार व कविन्दकों आदि ने भी राजाश्रय पाकर हस्तशिल्प को आगे बढ़ाया । कांगड़ा में व्यक्ति-चित्रों, आखेट एवं दरबारी-चित्रों के अतिरिक्त भागवत, गीतगोविन्द, बिहारी-सतसई, रागमाला, नल-दमयन्ती, रसिकप्रिया, नन्ददासकृत रास-पंचाध्यायी, नायिका भेद, रामायण, सुदामा चरित्र, शिवपुराण, रूक्मिणी मंगल, ऊषा-चरित्र, पद्मावत्, गंगावतरण, हरिवंश पुराण, सस्सी-पुन्नू तथा अनेक देवी-देवताओं के चित्र बने ।
इन सभी चित्रों में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति नारी के ही माध्यम से की गई है । सौन्दर्य दर्शन ही कला का उद्देश्य होता है। काव्य, नाटक और कामशास्त्र के रचयिताओं नारी के विविध रूपों, अवस्थाओं, मनोदशाओं तथा स्वाभावों का बड़ा सहज वर्णन प्रस्तुत किया है। नारी के इसी अध्ययन को 'नायिका-भेद' कहा जाता है। नायिका-भेद पर संस्कृत के आचार्यों के बाद हिन्दी साहित्य में केशव, देव, बिहारी व मतिराम आदि कवियों एवं आचार्यों ने लेखनी चलाई है। इन्हीं के काव्यों ने राजस्थानी व पहाड़ी तूलिकाओं में एक नया यौवन भरा है ।१०
नायिका वह है जो नायक की प्रेयसी है, जो नायक को वशीभूत करती है, उसे श्रृंगार का मार्ग दिखाती है। श्रृंगार मंजरी में, नायिका की निम्नानुसार परिभाषा की गयी है -
"श्रृंगाररसालम्बनं स्त्री नायिका" रस मंजरी की टीका करती हुई व्यंग्यार्थ कौमुदी निम्नानुसार परिभाषा प्रस्तुत करती है -
"नयति वशीकरोति सा नायिका" मध्ययुगीन कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र तथा साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में नायिकाओं के अनेक वर्गों की कल्पना की है ।१९ प्रारम्भ में अंग-प्रत्यंगों के आधार पर स्त्रियों के पद्मनी, चित्रणी, शंखनी तथा हस्तिनी नामक चार भेद किये गये। कामसूत्र में वैवाहिक, कन्या, पारदारिक तथा वैशिक प्रकरणों में नायिका-भेद का सविस्तार वर्णन किया है। काव्यशास्त्र ने इसी वर्गीकरण को अपनी स्वीकृति दी है। चित्र भी अधिकतर इसी भेद पर आधारित हैं । वात्स्यायन के कामसूत्र के अनुसार नायिका के तीन भेद किये गये हैं – (१) स्वकीया (२) परकीया तथा (३) साधारणी ।१२
साहित्यशास्त्र के अन्तर्गत नायिका-भेद की परम्परा 'नाट्यशास्त्र' से ही आरम्भ होती है। प्रसिद्ध अष्टनायिकाओं तथा नायिका के उत्तमा, मध्यमा, अधमा भेदों का उल्लेख भरतमुनि ने किया है । किन्तु 'नाट्यशास्त्र' में नायक-नायिका का वर्गीकरण एवं उनके भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण इसलिए हुआ था, जिससे नाटककार अपने पात्रों के शील, मर्यादा का आदि से अन्त तक उचित रीति से निर्वाह कर सकें। साहित्य शास्त्रकारों ने नायिकाओं का वर्गीकरण तथा विश्लेषण उनके द्वारा श्रृंगार विकास के उद्देश्य से किया । श्रृंगार-रस को रसराजत्व प्राप्त होने के बाद श्रृंगार रस के आलम्बन के रूप में नायिका भेद को