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आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान
साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री
समनस्क जीव अर्थात् मन युक्त जीव संज्ञी कहलाते हैं। मन का काम है विचार करना, मनन करना । मनन करने से ही मनुष्य, मनुष्य कहलाता हैं । कहा भी गया है - "मननात् मनुष्यः ।" अर्थात् जो मन से विचार करने में समर्थ हो व
हमारे शरीर में तीन तत्त्व प्रमुख हैं - १. शरीर २. मन और ३. आत्मा । शरीर स्थूल है । जैन विचारणा के अनुसार मनुष्य आदि का शरीर औदारिक माना गया है।
औदारिक शरीर को आहार आदि की आवश्यकता रहती है । औदारिक शरीर आहार-पाचन, रस, रक्त-मास आदि निर्माण के रूप में विविध कार्य करता हैं । शरीर में इन्द्रियाँ, मन आदि होते हैं।
मन शरीर से सूक्ष्म व आत्मा से स्थूल होता है । मन को इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता है क्योंकि मन अतिसूक्ष्म होता है। वरन् मानसिक क्रियाओं के द्वारा मन का अनुभव किया जा सकता
जैन दर्शन में मन के दो भेद किये गये है - १. द्रव्य मन २. भाव मन । मन का भौतिक रूप द्रव्य मन है तथा चेतन रूप भाव-मन है । द्रव्य मन मनोवर्गणा नामक पुद्गल स्कन्धों से बना हुआ है। यह मन का आंगिक एवं संरचनात्मक पक्ष है । साधरणतया, इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक-रचना-तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दसरे शब्दों में इस रचना-तंत्र में इस रचना-तंत्र को आत्मा से मिली हुई ज्ञान, वेदना एवं संकल्प की चैतन्य-शक्ति ही भावमन है ।५
मनोविज्ञान में मन को तीन स्तरों में बाँटा गया हैं – १. चेतन मन २. अर्धचेतन मन ३. अचेतन मन ।
चेतन मन सदा जागृत रहता है । अचेतन मन सदा सोया रहता है और अर्धचेतन मन कभी सोया कभी जागृत रहता है । चेतन मन में जितनी शक्ति है उससे असंख्य गुण अधिक शक्ति अचेतन मन में है।