________________
170
साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री
SAMBODHI
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अचेतन मन ही मनुष्य के सभी अच्छी-बुरी क्षमताओं का भण्डार है । सभी प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमताएँ इसमें छिपी है। जब यह अनुप्रेक्षा अर्थात् भावनाओं के द्वारा जागृत हो जाता है तब चमत्कार दिखाता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में मन की विलक्षण शक्तिओं का विवेचन किया गया है। चरक संहिता में मन का लक्षण बताते हुए कहा है -
चिन्त्यं विचार्यं उद्यं च, ध्येयं संकल्पमेव च ।
यत्किंचित् मनसो ज्ञेयं, तत्सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम् ॥ मन के पाँच कार्य हैं - १. चिन्त्य २. विचार्य ३. ऊह्य ४. ध्येय ५. संकल्प्य । १. चिन्त्य :- चिन्तन करना, यह करने योग्य है या नहीं उसका चिन्तन करना चिन्त्य है । २. विचार्य :- जो काम किया जा रहा है उसके लाभ-हानि का विचार करना विचार्य है । ३. ऊह्य :- कार्य-प्रणाली का गहन चिन्तन करना, ऊहापोह करना, तर्क-वितर्क करना ऊह्य है। ४. ध्येय – किसी एक वस्तु या विषय पर गहन चिन्तन-मनन करना ध्येय है। ५. संकल्प्य - कार्य करने का निश्चय करना ।
यह पाँचों क्रियाएँ एक से एक सूक्ष्म और स्थिर दशा की सूचक है । चिन्तन और विचार के बाद भावना की स्थिति आती है, जो ध्येय और संकल्प के रूप में परिणत होकर शक्तिशाली बन जाती है।
मनोवैज्ञानिकों ने मन की अपार शक्ति का विवेचन किया है । मन की ऊर्जा मनुष्य स्वभाव को बदल देती है । मन की शक्ति सूक्ष्मतम पदार्थ के स्वभाव को बदलने में भी समर्थ है। विचार द्वारा मन की शक्ति को एकाग्र करके आश्चर्यकारी परिणाम प्राप्त कर सकते हैं । उससे विपरीत चंचल मन के द्वारा मानसिक शक्तियों का क्षय भी हो सकता है। इसी धारणा को जैन धर्म कुछ अन्य शब्दों में प्रस्तुत करता है -
भावे भावना भाविये, भावे दीजे दान ।
भावे जिनवर पूजिये, भावे केवलज्ञान ॥ अर्थात् भावपूर्वक भावना भाने से अद्भूत परिणाम की प्राप्ति होती है, भावपूर्वक दान देने से अपार पुण्योपार्जन होता है, भावपूर्वक जिनवर की पूजा करने से सभी इच्छितों की पूर्ति होती है और भावना भाने से ही केवलज्ञान प्रकट होता है ।
भावना का अर्थ है कि एक ही विचार का बार-बार और निरन्तर चिन्तन करना । इसी को तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकार उमास्वातिजी ने 'तत्त्वार्थानुचिन्तन अनुप्रेक्षा' कहकर के व्याख्यायित किया है ।