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Vol. XLI, 2018
लोक कला के नये मुहावरे गढ़ते : यामिनी राय के चित्र
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यामिनी राय की खूबी इस बात में नहीं थी कि उनकी चित्र भाषा तथा कला प्रेरणा के स्रोत आंचलिक लोककला से थे । महज ऐसा करना भावुकतावादी हो सकता था । यामिनी राय को श्रेय इस बात का जाता है कि उन्होंने लोक धाराओं की खूबियों तथा उनके कलात्मक सत्य को पुनः अन्वेषित किया था। उन्होंने तात्कालिक भारतीय चित्रकला में हमारे दस्तकारों की सूझबूझ को पुनर्स्थापित किया। कई शताब्दियों के लम्बे अभ्यास के बाद से भारतीय कला ने रेखा के प्रयोग में विशेष लयात्मक गुण प्राप्त किया था । यही गणवत्ता उनकी विशेष पहचान बन गई थी। यामिनी राय के सचेतन प्रयासों से रेखा के इन विशेष गुणों ने पुनः सन्मान अर्जित किया । चित्रों में गठन, संतुलन और अनुपात आदि भी उन्होंने लोक कला से लिए । किन्तु एक विकासशील समकालीन चित्रकार की तरह उन्होंने चित्र भाषा के इन तत्त्वों का प्रयोग केवल मूल रूपाकार के बुनियादी गुणों को उभारने के लिए किया। यह स्वाभाविक ही था कि चित्रकला में उनके प्रयोग मुख्यत: रूपाकारों के गठन और रैखिक तत्त्वों को लेकर थे। विशुद्ध रेखारूप बनाने का प्रयास करते हुए उन्होंने क्रमशः अपनी विशिष्ट शैली विकसित की । अपनी सामाजिक चेतना में स्वयं के अनुभूत जगत को सार्थक अभिव्यक्ति देने की आकुलता ने उन्हें निजी आविष्कारों के लिए प्रेरित किया था। जैसा कि अपेक्षित था, यह नया चरण तकनीकों और तरीकों में परिवर्तन भी लाया । यामिनी राय तैल-रंगों से मिट्टी के रंगों की ओर मुड़े । कैनवास की बजाय उन्होंने चिकनी मिट्टी या चूने के पुते कपड़े या कागज. और लकड़ी के तख्ते इस्तेमाल करना शुरू किया । रंगों को बाँधने और टिकाऊ बनाने के लिए उन्होंने अण्डे के टेम्परा का उपयोग किया, लेकिन इससे ज्यादा इमली के बीज से बनी गोंद का । उन्होंने अपने रंग संयोजन को छ: या सात रंगों तक सीमित कर दिया - हिन्दुस्तानी लाल, गैरिक पीला, कैडेमियम हरा, सिन्दूरी राखिया सलेटी और नीला, जो ज्यादातर आसानी से उपलब्ध सामग्री से बनाये जाते, मसलन हरताल, काक खोरी, दिये की कालिख, चौक या चूना आदि।
यामिनी राय : माँ और शिशु