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सुरेश्वर मेहेर
SAMBODHI ब्रह्म का भिन्नत्व है, वस्तुतः जीव और ब्रह्म में मूलतया ऐक्य ही है। यही आचार्य शंकर के ब्रह्मकारणतावाद का मूल सिद्धान्त है। १. ब्रह्म का स्वरूप
__महर्षि बादरायण प्रणीत ब्रह्मसूत्र "जन्माद्यस्य यतः" के शारीरक भाष्य में शंकराचार्य ने अद्वैतवाद ब्रह्म की निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की है
"अस्य जगतो नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्त स्य प्रतिनियतदेशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसा अपि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सर्वज्ञात् सर्वशक्तेः कारणाद् भवति, तद् ब्रह्म"।
अर्थात् नाम-रूप के द्वारा अव्यक्त, अनेक कर्ताओं एवं भोक्ताओं से संयुक्त, ऐसे क्रिया और फल के आश्रय जिसके देश, काल और निमित्त व्यवस्थित हैं, मन से भी जिसकी रचना के स्वरूप का विचार नहीं हो सकता ऐसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं नाश जिस सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् कारण से होते हैं, वह ब्रह्म है । शंकराचार्य का उपर्युक्त कथन तैत्तिरीय उपनिषद् के एक महावाक्य की ओर लक्षित करता है जिसमें कहा गया है कि ब्रह्म वह है जिससे इस जगत के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिसमें स्थित और जीवित रहते हैं और जिसमें पुनः विलीन हो जाते हैं । शंकरकृत उपर्युक्त लक्षण के अनुसार ब्रह्म की विशेषताएँ- सर्वव्यापकता, अधिष्ठानता, सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता है । अतः परिभाषानुसार 'ब्रह्म' शांकर वेदान्त का सर्वोच्च तत्त्व व एकमात्र परम कारण है। ब्रह्म शुद्ध चैतन्य, एकरस तथा कूटस्थ नित्य परम सत्ता है ।
शंकराचार्य के अनुसार सर्वोच्च सत्ता ब्रह्म व्यावहारिक, देशिक, कालिक एवं वैचारिक सत्ताओं से विलक्षण है । उसका अस्तित्व सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु देश-कालातीत होने के कारण ब्रह्म का अस्तित्व किसी भी स्थान पर नहीं कहा जा सकता है । वस्तुतः वह एक ऐसा सूक्ष्म तत्त्व है जिसका निर्देश वाणी एवं मन के द्वारा असंभव है, परन्तु वह अभावरूप नहीं है ।
परमार्थ दृष्टि से शांकर अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म एवं जगत् में अनन्यत्व होने के कारण कार्यकारणता का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है । इसलिए शांकर दर्शन के अनुसार जगत् को ब्रह्म का विवर्त कहा गया है, परिणाम नहीं । परन्तु मायाशक्ति से सबलित होने के कारण ब्रह्म जगत् को कार्य तथा परब्रह्म को कारण कहा है । परन्तु ब्रह्म जगत् का कारण होने से उसमें अथवा उसके धर्म अथवा धर्मों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है क्योंकि उत्पत्ति, रक्षा तथा प्रलय काल में ब्रह्म अविकृत रहता है। अतः जगत् की उत्पत्ति आदि की इच्छा भी मायाविशिष्ट ब्रह्म में ही है। इसी मायाविशिष्ट ब्रह्म को 'ईश्वर' संज्ञा दी गई है । शांकर दर्शन के अनुसार माया शक्ति से विशिष्ट ब्रह्म जगत् का उपादान कारण ही नहीं, अपितु निमित्त कारण भी है। जिस प्रकार मकड़ी अपने शरीर चेतन अंश के प्राधान्य के कारण जाले का उपादानकारण, साथ-साथ अपने शरीर की प्रधानता के कारण जाले का निमित्त कारण बनती