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ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना
सुरेश्वर मेहेर
उपक्रम
दर्शन परम्परा में वेदान्त सर्वाधिक प्राचीन व प्रमुख दर्शन के रूप में विवेचित है। भारतीय मनीषियों के मस्तिष्क को जितना इस दर्शन ने प्रभावित किया है उतना संभवतः किसी अन्य भारतीय दर्शन ने किया हो । जब बौद्धदर्शन का ह्रास होते हुए भी उसका पूर्ण उच्छेद नहीं हो पा रहा था एवं मीमांसक वैदिक कर्मकाण्ड के आध्यात्मिक महत्त्व को समझाने में असफल सिद्ध हो रहे थे, ऐसे समय में सत्य-धर्म व दर्शन का प्रचार कर समाज में धार्मिक और दार्शनिक एकता को स्थापित करने के लिए आचार्य शंकर ने अपने अद्वैतवाद सिद्धान्त की स्थापना की । शंकराचार्य को अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों से अद्वैत संबंधी विचारधारा की एक सबल पृष्ठभूमि उपलब्ध हुई थी। परन्तु शांकर अद्वैतवाद का प्रमुख आधार महर्षि बादरायण का ब्रह्मसूत्रदर्शन एवं उपनिषद् दर्शन था । अध्यात्मविद्या के अनेकों अनुशीलनकर्ताओं, उपनिषद्वर्ती तत्त्ववेत्ताओं एवं उपनिषद्वर्ती सिद्धान्तों के सूत्ररूप में प्रस्तुतकर्ता बादरायण के विचारों में अनेकता एवं सूत्ररूपता के कारण कुछ असामंजस्यता एवं असंदिग्धता बनी थी । उक्त न्यूनताओं की पूर्ति शंकराचार्य ने अपने शारीरकभाष्यादि ग्रन्थों में प्रस्तुत समन्वयात्मक सिद्धान्त के आधार पर की है । अद्वैतवेदान्त दर्शन के अन्य आचार्यों व विद्वानों में सुरेश्वराचार्य, पद्मपाद, वाचस्पति मिश्र, सर्वज्ञात्म मुनि, विद्यारण्य, मधुसूदन सरस्वती, धर्मराजाध्वरीन्द्र, सदानन्द योगीन्द्र आदि प्रमुख हैं जिन्होंने अपने-अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के द्वारा अद्वैतवेदान्त दर्शन को प्रतिपादित किया है।
शंकराचार्य प्रतिपादित अद्वैत-वेदान्त दर्शन ने सृष्टि के मूल में एक ही प्रमेय तत्त्व 'ब्रह्म' को कारण के रूप में स्वीकार कर स्वकीय सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित किया है, जिसे 'ब्रह्मकारणतावाद' के रूप में अभिहित किया जाता हैं । विशेषतः, उपनिषदों के आधार पर ही शंकराचार्य ने ब्रह्मविद्या का निरूपण किया है । शुद्ध चेतन ब्रह्म को ही अद्वैत तत्त्व अथवा एकमात्र कारणरूप स्वीकार कर अद्वैतवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । शांकर अद्वैतवाद के अनुसार अद्वैततत्त्व ब्रह्म को निर्गुण स्वीकार किया गया है। जगत् की सत्ता शांकर अद्वैतवाद के अन्तर्गत मायिक बतलाई गई है । माया के कारण ही जीव और