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सत्यव्रत वर्मा
SAMBODHI
वह स्वयं संवेद्य है। योग के अनुष्ठान से ही उसका बोध हो सकता है। योग-साधना की परिणति निर्वाणप्राप्ति में होती है, जिसे पुराण की शब्दावली में 'माहेश्वर पद' कहा गया है। भगवान् रुद्र का ज्ञान निर्वाणप्राप्ति का साधन है, और वह उन्हीं की कृपा से प्राप्त होता है । जो साधक इन्द्रियों को जीत कर रुद्रज्ञान की ज्वाला से पापों को भस्म कर देता है, उसे योग की सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है (१-८.३-६)।
__ लिङ्गपुराण की योग की परिभाषा - योगो निरोधो वृत्तेषु चित्तएय है (१.८.७) – पतंजलि के प्रसिद्ध लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' है (१.२) की प्रतिच्छाया मात्रा है। नित उभरती चित्तवृत्तियों के विवेकपूर्ण निरोध की नींव पर ही योग का समूचा दुर्ग अवस्थित है। कूर्मपुराण के लेखक ने योग के प्राचीन लक्षण को नयी भंगिमा देने की चेष्टा की है। उसके अनुसार योग की सिद्धि तभी होती है जब चित्त में उठने वाली समस्त वृत्तियों को रोक कर उन्हें सर्वात्मना परमात्मा में केन्द्रित कर दिया जाता है : मय्येकचित्रता योगो वृत्त्यन्तरनिरोधतः (२.११.१२) । यह प्रकारान्तर से योग में भक्ति का समावेश है, यद्यपि इसके संकेत ईश्वर प्रणिधानाद्वा' (१.२३), तज्जपस्तदर्थभावनम् (१.२८) आदि सूत्रों के द्वारा योगदर्शन में भी मिलते हैं । शिव प्रणोधान नामक नियम की व्याख्या में लिङ्गपुराण के कर्ता ने भी योग में भक्ति का पुट देने का प्रयास किया है : शिवज्ञान गुरोर्भक्तिरचला (१.८.४१) । योग में भक्ति का यह समावेश लिङ्गपुराण की प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है ।
योग के आठ प्रसिद्ध अंगों का लिङ्गपुराण में रोचक तथा सारपूर्ण विश्लेषण हुआ है, जो कई दृष्टियों से उपयोगी तथा विचारणीय है । पुराणकार के अनुसार अष्टांग योग ‘सिद्धि' का द्वार है : साधनान्यष्टधा चास्य कयितानीह सिद्धये (१-८.७) । यह 'सिद्धि' सम्भवत: 'विवेकख्याति' से भिन्न नहीं है, जो योग का साध्य है : योहाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः (२-२८)। योग के आठ अंगों का यथाविधि अभ्यास करने से चित्त के अविद्या आदि दोषों का क्षय होता जाता है और तदनुसार आत्मज्ञान की ज्योति उत्तरोत्तर प्रकाशित होती जाती है । आत्मज्ञान का प्रकर्ष होने पर साधक को प्रकृति-पुरुष के भेद का साक्षात् ज्ञान हो जाता है, जिसे योगदर्शन की शब्दावली में 'विवेकख्याति' कहते हैं ।
लिङ्गपुराण के अष्टांग योग के निरूपण की विशेषता यह है कि उसमें यम-नियम के भेदों की यथोचित व्याख्या की गयी है। जो काम पतंजलि के भाष्यकारों ने किया है. पराणकार ने स्वयं उसे करके इन उज्जवल भावों को और विशदता प्रदान की है। पुराणकार के अनुसार 'तप में प्रवृत्तितया विषयभोगों से निवृत्ति का नाम यम है : तपस्युपरमश्चैव यम इत्यभिधीयते (१.८.१०) । विषयों से निवत्ति का यह भाव यम् धातु (यमि उपरमे) में ही निहित है, जिससे यम शब्द की निष्पत्ति हुई है। अहिंसा को यम का प्रथम हेतु कहकर (१.८.१०) लिङ्गपुराण के रचयिता ने बहुत सहजता से अहिंसा के सर्वातिशायी गौरव को रेखांकित किया है। जहाँ प्रायः सर्वत्र मन, वचन, कर्म से सर्वविध हिंसा के त्याग के द्वारा अहिंसा के स्वरूप की निषेधात्मक व्याख्या की गयी है, वहाँ लिङ्गपुराण में अहिंसा के उदात्त भाव की अतीव व्यापक तथा सकारात्मक परिभाषा देखने को मिलती है। पुराण की शब्दावली में प्राणिमात्र को आत्मवत् - अपने अभिन्न – मानकर उनके कल्याण के लिये सतत प्रयत्नशील रहना अहिंसा है। इसी अहिंसा से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है ।