Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 9
________________ कोई भी उपलब्ध नहीं है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय, चारित्रसार, सोमदेव उपासकाध्ययन, अमितगति उपासकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, और लाटीसंहिता आदिक जो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं वे सब इसके बादके ही बने हुए हैं। और इस लिये, उपलब्ध जैनसाहित्यमें, यदि इस ग्रंथको 'प्रथम श्रावकाचार'का नाम दिया जाय तो शायद कुछ भी अनुचित न होगा । छोटा होनेपर भी इसमें श्रावकोंके लिये जिन सल्लक्षणान्वित धर्मरत्नोंका संग्रह किया गया है वे अवश्य ही बहुमूल्य हैं । और इस लिये यह ग्रंथ आकारमें छोटा होनेपर भी मूल्यमें बड़ा है, ऐसा कहनेमें हमें जरा भी संकोच नहीं होता। प्रभाचंद्रजीने इसे अखिल सागारमार्ग ( गृहस्थधर्म ) को प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य लिखा है और श्रीवादिराजसूरिने 'अक्षय्यसुखावह' विशेषणके साथ इसका स्मरण किया है। ग्रन्थपर सन्देह । कुछ लोगोंका खयाल है कि यह ग्रंथ उन स्वामी समन्तभद्राचार्यका बनाया हुआ नहीं है जो कि जैन समाजमें एक बहुत बड़े प्रसिद्ध विद्वान हो गये है और जिन्होंने ' देवागम ' ( आप्तमीमांसा ) जैसे अद्वितीय और अपूर्व तर्कपूर्ण तात्त्विक ग्रंथोंकी रचना की है। बल्कि 'समंतभद्र ' नामके अथवा समन्तभद्रके नामसे किसी दूसरे ही विद्वानका बनाया हुआ है, और इस लिये अधिक प्राचीन भी नहीं है । परंतु उनके इस खयाल अथवा संदेहका क्या कारण है और किस आधार पर वह स्थित है, इसका कोई स्पष्टोल्लेख अभीतक उनकी ओरसे किसी पत्रादिकमें प्रकट नहीं हुआ, जिससे उसका यथोचित उत्तर दिया जा सकता। फिर भी इस व्यर्थके संदेहको दूर करने, उसकी संभावनाको मिटा देने और भविष्यमें उसकी संततिको आगे न चलने देनेके लिये यहाँ पर कुछ प्रमाणोंका उल्लेख कर देना उचित जान पड़ता है और नीचे उसीका यत्किंचित् प्रयत्न किया जाता है-- (१) ऐतिहासिक पर्यालोचन करनेसे इतना जरूर मालूम होता है कि * समन्तभद्र' नामके दो चार विद्वान् और भी हुए हैं; परंतु उनमें ऐसा एक भी नहीं था जो 'स्वामी' पदसे विभूषित अथवा इस विशेषणसे विशेषित हो; बल्कि एक तो लघुसमंतभद्रके नामसे अभिहित हैं, जिन्होंने अष्टसहस्री पर 'विषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक वृत्ति (टिप्पणी) लिखी है। ये विद्वान् स्वयं भी अपनेको 'लघुसमंतभद्र' प्रकट करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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