Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti View full book textPage 8
________________ मरणकी विधिका उल्लेख किया है और सल्लेखनाके पाँच अतीचार भी दिये हैं । अन्तमें सद्धर्मके फलका कीर्तन करते हुए, निःश्रेयस सुखके स्वरूपका कुछ दिग्दर्शन भी कराया गया है । सातवें परिच्छेद में श्रावकके उन ग्यारह पदों का स्वरूप दिया गया हैं जिन्हें ' प्रतिमा' भी कहते हैं और जिनमें उत्तरोत्तर प्रतिमाओंके गुण पूर्वपूर्वकी प्रतिमाओंके संपूर्ण गुणोंको लिये हुए होते हैं और इस तरह पर क्रमशः विवृद्ध होकर तिष्ठते हैं । इन प्रतिमाओंमें छठी प्रतिमा 'रात्रिभोजनत्याग' बतलाई गई है । इस तरह पर, इस ग्रंथमें, श्रावकोंके अनुष्ठानयोग्य धर्मका जो वर्णन दिया है वह बड़ा ही हृदयग्राही, समीचीन, सुखमूलक और प्रामाणिक है । और इस - लिये प्रत्येक गृहस्थको, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अवश्य ही इस ग्रंथका भले प्रकार अध्ययन और मनन करना चाहिये । इसके अनुकूल आचरण निःसन्देह कल्याणका कर्ता है और आत्माको बहुत कुछ उन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है । ग्रंथकी भाषा भी बड़ी ही मधुर, प्रौढ और अर्थगौरवको लिये हुए है । सचमुच ही यह ग्रंथ धर्मरत्नों का एक छोटासा पिटारा है और इस लिये इसका ' रत्नकरंडक' नाम बहुत ही सार्थक जान पड़ता है । I यद्यपि, ग्रंथकार महोदयने स्वयं ही इस ग्रंथको एक छोटासा पिटारा ( करंडक ) बतलाया है तो भी श्रावकाचार विषयका दूसरा कोई भी ग्रंथ अभी तक ऐसा नहीं मिला जो इससे अधिक बड़ा और साथ ही अधिक प्राचीन हो । प्रकृत विषयका अलग और स्वतंत्र ग्रंथ तो शायद इससे पहलेका * श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके ' चारित्र पाहुड' में श्रावकों के संयमाचरणको प्रतिपादन करनेवाली कुल पाँच गाथाएँ हैं जिनमें ११ प्रतिमाओं तथा १२ व्रतोंके : नाम मात्र दिये हैं- उनका स्वरूपादिक कुछ नहीं दिया और न व्रतोंके अतीचारोंका ही उल्लेख किया है । उमास्वाति महाराजके तत्त्वार्थसूत्रमें व्रतोंके अतीचा जरूर दिये हैं परंतु दिव्रतादिकके लक्षणोंका तथा अनर्थदंडके भेदादिकका उसमें: अभाव है और अहिंसात्रतादिकके जो लक्षण दिये हैं वे खास श्रावकों को लक्ष्य करके नहीं लिखे गये । सल्लेखनाका स्वरूप और विधि विधानादिक भी उसमें नहीं हैं। ११ प्रतिमाओंके कथन तथा और भी कितनी ही बातोंके उल्लेख वह रहित है, और इस तरह पर उसमें भी श्रावकाचारका बहुत ही संक्षिप्तः वर्णन है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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