Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti View full book textPage 6
________________ इस ग्रंथमें धर्मके उक्त ( सम्यग्दर्शनादि ) तीनों अंगोंका-रत्नत्रयका ही यत्किंचित् विस्तारके साथ वर्णन है और उसे सात परिच्छेदोंमें विभाजित किया है। प्रत्येक परिच्छेदमें जो कुछ वर्णन है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है प्रथम परिच्छेदमें सत्यार्थ, आप्त आगम और तपोभृत् (गुरु) के त्रिमूढतारहित तथा अष्टमदहीन और अष्टअंगसहित श्रद्धानको 'सम्यदर्शन' बतलाया है; आप्त-आगम-तपस्वीके लक्षण, लोक-देव-पाखंडिमृढताओंका स्वरूप, ज्ञानादि अष्टमदोंके नाम और निःशंकितादि अष्ट अंगोंके महत्त्वपूर्ण लक्षण दिये हैं। साथ ही, यह दिखलाया है कि रागके विना आप्त भगवानके हितोपदेश कैसे बन सकता है, अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मसंततिको नाश करनेके लिये कैसे समर्थ नहीं होता और दूसरे धर्मात्माओंका अनादर करनेसे धर्मका ही अनादर क्योंकर होता है। इसके सिवाय सम्यग्दर्शनकी महिमाका विस्तारके साथ वर्णन दिया है और उसमें निम्नलिखित विशेषताओंका भी उल्लेख किया है (१) सम्यग्दर्शनयुक्त चांडालको भी 'देव' समझना चाहिये । (२) शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, स्नेह तथा लोभसे कुदेवों, कुशास्त्रों और कुलिंगियों ( कुगुरुओं ) को प्रणाम तथा विनय नहीं करते। (३) ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है, वह मोक्षमार्गमें खेवटियाके सदृश है और उसके विना ज्ञान तथा चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, और फलोदय उसी तरह नहीं हो पाते जिस तरह बीजके अभावमें वृक्षकी उत्पत्ति आदि । (४) निर्मोही ( सम्यग्दृष्टि ) गृहस्थ मोक्षमार्गी है परंतु मोही (मिथ्यादृष्टि ) मुनि मोक्षमार्गी नहीं; और इस लिये मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है। १ इस मुद्रित टीकामें ग्रंथके पाँच परिच्छेद किये गये हैं जिसका कोई विशेष कारण समझमें नहीं आया । मालूम नहीं, टीकाकार श्रीप्रभाचंदने ही ऐसा किया है अथवा यह लेखकादिकोंकी ही कृति है। हमारी रायमें सात परिच्छेद विषयविभागकी दृष्टिसे, अच्छे मालूम होते हैं और वे ही मूल प्रतियोंमें पाये भी जाते हैं। यदि सात परिच्छेद न हों तो फिर चार होने चाहिये । गुणव्रत परिच्छेदको पूर्व परिच्छेदमें शामिल कर देना और शिक्षाव्रत परिच्छेदको शामिल न करना क्या अर्थ रखता है यह कुछ समझमें नहीं आता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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