Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 5
________________ प्रस्तावना। ग्रन्थ-परिचय । जिस ग्रंथरत्नकी यह प्रस्तावना आज पाठकोंके सामने प्रस्तुत की जाती है वह जैनसमाजका सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'रत्नकरंडक' नामका उपासकाध्ययन है, जिसे साधारण बोलचालमें अथवा आम तौर पर 'रत्नकरंडश्रावकाचार ' भी कहते हैं । जैनियोंका शायद ऐसा कोई भी शास्त्रभंडार न होगा जिसमें इस ग्रंथकी एक आध प्रति न पाई जाती हो; और इससे ग्रंथकी प्रसिद्धि, उपयोगिता तथा बहुमान्यतादि-विषयक कितनी ही बातोंका अच्छा अनुभव हो सकता है। - यद्यपि यह ग्रंथ कई बार मूल रूपसे तथा हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी आदिके अनुवादों सहित प्रकाशित हो चुका है, परन्तु यह पहला ही अवसर है जब यह ग्रंथ अपनी एक संस्कृतटीका और ग्रंथ तथा ग्रंथकर्तादिके विशेष परिचयके साथ प्रकाशित हो रहा है । और इस दृष्टिसे ग्रंथका यह संस्करण अवश्य ही विशेष उपयोगी सिद्ध होगा, इसमें संदेह नहीं है । - मूल ग्रंथ स्वामीसमंतभद्राचार्यका बनाया हुआ है, जिनका विशेष परिचय अथवा इतिहास अलग लिखा गया है, और वह इस प्रस्तावनाके साथ ही प्रकाशित हो रहा है । इस ग्रंथमें श्रावकोंको लक्ष्य करके उस समीचीन धर्मका उपदेश दिया गया है जो कर्मोका नाशक है और संसारी जीवोंको संसारके दुःखोंसे निकालकर उत्तम सुखोंमें धारण करनेवाला-अथवा स्थापित करनेवाला है। वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप है और इसी क्रमसे आराधनीय है । दर्शनादिककी जो स्थिति इसके प्रतिकूल है-अर्थात्, सम्यक्-. रूप न होकर मिथ्या रूपको लिये हुए है-वही अधर्म है और वही संसार-परिभ्रमणका कारण है, ऐसा आचार्य महोदयने प्रतिपादन किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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