Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ कुछेक झोंपड़ियों में वृद्ध पुरुष हुक्का और चिलम पी रहे थे और कुछ विविध प्रसंगों की बातें कर रहे थे। कोई अपने यौवन की यशोगाथा गा रहा था और कोई अपने साहसिक कार्य का व्याख्यान कर रहा था। इस प्रकार सारे ग्रामवासी अपने-अपने सुख और संतोष में मस्ती मानते हुए रह रहे थे। और गत पूर्णिमा की रात में विजयी होकर वासरी जैसी सुंदर कन्या को प्राप्त करने वाला सुदंत अपने घर से कुछ ही दूर वनप्रदेश के एक वृक्ष की शाखा पर रज्जु का झूला बांधने के लिए वृक्ष पर चढ़ रहा था। वासरी अपनी ही झोंपड़ी में अपनी समवयस्क सखियों के साथ हासपरिहास कर रही थी। किन्तु उसका मन सुदंत की प्रतीक्षा में रत होने के कारण वह बार-बार झोंपड़ी के झांपे की ओर देख रही थी। उसके हृदय में झूला झूलने ..... प्रियतम के हाथों से पेंग लेने की आकांक्षा उभर रही थी। जब चित्त चंचल होता है, तब नयन भी चंचल हो जाते हैं। वासरी के नेत्र सुदंत को देखने के लिए बार-बार द्वार पर अटक रहे थे। मनुष्य का चित्त जब किसी कल्पना में क्रीड़ा करता है तब वह उससे अतिरिक्त किसी भी बात में रस नहीं लेता। वासरी की ऐसी अवस्था देखकर एक नव विवाहिता सखी ने व्यंग्य में कहा-'अरे वासरी! मुझे लगता है कि तेरा मन किसी पंछी की भांति उड़ानें भर रहा है।' ___'वाह! कैसी बात! क्या मन कभी उड़ सकता है? उसके कहां हैं पंख पक्षी जैसे!' वासरी ने मुस्कराते हुए कहा। ___ 'ओह वासरी! मन की पांखें! वे तो अजब पांखे हैं। वे न दृश्य होती हैं और न थकती हैं...... और जब मन उड़ने की चाह करता है तब उसे कोई रोक नहीं सकता। तू अपने मन को छिपाने का व्यर्थ प्रयत्न क्यों कर रही है? आंख मन का दर्पण है... वह तत्काल चुगली कर देती है। विवाह के बाद मेरी भी यही दशा थी जो आज तेरी है...बोल, आज रात को कहां जाना चाहते हो?' वासरी शरमा गई...... एक बार तिरछी दृष्टि से सामने देखकर, फिर नीचे देखने लगी। किन्तु चांदनी के भरपूर प्रकाश में उसके आनन पर नाचने वाली मस्ती की रेखाएं अदृश्य नहीं रह सकी...... और लज्जा की गुलाबी रेखाएं गालों पर नाचने लगीं।....... आंखों में भी रंग छा गया। दूसरी सखी ने विनोदभरे स्वरों में कहा-'वासरी!....... कल तुम दोनों क्या उस झरने के पास गए थे ?' 'हां, परन्तु मेरी तो तनिक भी इच्छा नहीं थी।' 'ओह! तब तो वह तुमको उचक कर ले गया होगा! कदंब के वृक्ष के नीचे २० / पूर्वभव का अनुराग

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