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लुटेरों के पंजों में फंसे हैं...... आप जैसे पवित्र जवान तथा सुकुमारिका तरंगलोला के रक्त से मंदिर का मंडप दूषित हो, यह उचित नहीं है। मैं आपको बंधन-मुक्त कर इस वनप्रदेश के छोर तक पहुंचा देता हूं......'
तरंगलोला हर्ष से नाच उठी। वह बोली-शासनदेव तुम्हारा कल्याण करें।'
रुद्रयश ने पद्मदेव के सारे बंधन खोल दिए। वह बोला-'आप दोनों पहले कंबल पर बैठे...... मैं आपको गुप्तमार्ग से बाहर ले जाऊंगा..... परन्तु उससे पूर्व मैं सारी जांच-पड़ताल कर लेता हूं...... ऐसे तो अब सभी निद्राधीन होंगे और शराब के नशे में धुत होकर पड़े होंगे......'
_ 'भाई! तुम्हारा यह उपकार अविस्मरणीय होगा...' परन्तु तुम्हारा तो कोई अहित नहीं हो जाएगा?'
'मैं भी आपके साथ ही साथ इस नरक से निकल जाऊंगा। तुमको मुक्त कर वापस आऊंगा तो सरदार मेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालेगा। अब आधी रात बीत चुकी है...... तुम शांति से बैठे रहो..." मैं निरीक्षण कर आऊं ।'
तरंगलोला बोली-'स्वामिन् ! आप तो अत्यंत शांत बन गए थे।'
'मैं भी तो क्या कर सकता था? यदि बल प्रयोग कर छूटने का प्रयत्न करता तो तुम्हारी जिन्दगी पर खतरा मंडराने लग जाता। इसलिए मैं केवल नमस्कार-महामंत्र का जाप करते-करते खड़ा था। परन्तु तुम्हारी कथा ने इस दुर्दान्त दस्यु के हृदय को बदला है, ऐसा प्रतीत होता है।' पद्मदेव बोला।
दोनों राहत का अनुभव करते हुए कंबल पर बैठ गए। मुक्ति का आनन्द पशु-पक्षियों को भी हर्षविभोर कर देता है तो भला मनुष्यों का तो कहना ही क्या?
लगभग अर्धघटिका के पश्चात् रुद्रयश गुफागृह में आया और धीरे से बोला-'मार्ग निष्कंटक है। तुम दोनों मेरे पीछे-पीछे शांतभाव से चले आओ, परस्पर बातचीत न करते हुए, आवाज न करते हुए चलने में सुरक्षा है। हमें प्रभात होने तक चलना ही चलना है। अन्यथा सरदार पदचिह्न देखकर हमें पकड़ सकता
'हम तैयार हैं', कहकर पद्मदेव खड़ा हुआ। तरंगलोला भी खड़ी हो गई।
रुद्रयश ने अपने हाथ में दो लकड़ी के खंड ले रखे थे। वह आगे चला। दोनों उसके पीछे चलते-चलते गुफागृह से बाहर निकले।
गुफानगरी शांत थी... मार्ग में भी कोई नहीं था..... फिर भी रुद्रयश चारों ओर देखता हुआ, चौंकन्ना होकर अंधेरे में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। पद्मदेव और तरंगलोला भी उसके पीछे-पीछे सावधानीपूर्वक चल रहे थे।
गुप्त मार्ग संकरा और गुफा जैसा था। उसके नुक्कड़ पर पहुंचकर रुद्रयश बोला-'आप झुककर चलें अन्यथा सिर छत से टकराएगा। मार्ग छोटा और
पूर्वभव का अनुराग / १२१