Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 145
________________ थीं- 'प्रियतम ! संसार का स्वरूप कितना भयंकर है।' पद्मदेव ने पत्नी का भाव समझकर मुनिश्री से कहा - ' जैसे आपने अपना मार्ग चुना है, वैसे ही हमें भी कल्याण का मार्ग बताएं। आज हमने संसार का स्वरूप यथार्थ में जान लिया है। आप हमें इस संसार - अटवी से उबार लें ।' 'भाई! अति कठिन कार्य है। स्नेह, ममता, प्रेम, सुख-संपत्ति – इन सबका त्याग करना छोटी बात नहीं है। त्याग और तप के बिना इस इन्द्रजाल से नहीं बचा जा सकता।' मुनि ने कहा । 'मुनिवर ! हम तैयार हैं' - पद्मदेव और तरंगलोला दोनों बोल पड़े। मुनिश्री बोले- 'भव्यात्मन् ! ये विचार उत्तम हैं। इनके बिना संसार से निस्तार असंभव है। रोग, शोक, दुःख, भय, क्लेश, जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था आदि से बचाव संयम की साधना से ही हो सकता है। ऐसे तो तुम अनन्त भवों से संसार में परिभ्रमण कर रहे हो उनको छोड़ें अभी के दो भवों पर विचार करें तो समझ में आएगा कि संसार कितना असार है, प्रेम, सुख या मोह अनन्त संसार का ही सूचक है। जब तक शरीर स्वस्थ हो, शक्ति हो तब तक संयम की आराधना की जा सकती है। तुम दोनों स्वस्थ हो, शक्ति संपन्न हो । यही अवसर है - सर्वत्याग का । ' 'महात्मन्! आपकी वाणी हमारे रग-रग में घर कर गई है। हम चाहते हैं आपका अनुसरण करना, सर्वत्याग के मार्ग पर चलना । आप हमें पथ - दर्शन दें । ' 'जैसा चाहो वैसा करो' मुनि ने कहा । पद्मदेव ने तत्काल माली को बुलाया और कहा - ' भाई ! तू भवन में जा और मेरे माता-पिता को बता दे कि हम दोनों ने सर्वत्याग के मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया है। नगरसेठ के भवन पर भी यह समाचार तत्काल दे देना ।' माली दो क्षण के लिए अवाक् बन गया और दर्दभरे हृदय से भवन की ओर दौड़ा। आभूषण उतारने लगे। पद्मदेव और तरंगलोला- दोनों अपने शरीर के मुनिश्री बोले- 'आत्मन् ! पूरा विचार कर लें। यह मार्ग जीवनपर्यंत का मार्ग है। सावधिक नहीं है। मोह-ममता को छोड़ना सरल नहीं है। पूरी तैयारी हो तो इस मार्ग को अपनाना ।' दोनों ने सहर्ष स्वीकृति दी । इतने में ही माता-पिता और दास-दासी सभी आ गए। सभी ने पद्मदेव और तरंगलोला को समझाने का आक्रन्दनभरा प्रयत्न किया। परन्तु वे दोनों अपने निश्चय से विचलित नहीं हुए। दोनों ने वहीं अपने हाथों लुंचन कर लिया। अब उनका मुंडित मस्तक सूर्य की किरणों से चमक रहा था। दोनों के सिर पर रक्त के बिन्दु उभर आए। पूर्वभव का अनुराग / १४३

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