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माता कल्याणी जोर-जोर से चिल्ला रही थी। उसी समय नगरसेठ पूरे परिवार के साथ वहां आ पहुंचा। तरंगलोला को उस स्थिति में देख सभी रो पड़े। सारा वातावरण रुदनमय हो गया। दास-दासी, भाई-भौजाई, मां-बाप-सभी की आंखों से अजस्र अश्रुप्रवाह बह रहा था। सभी किंकर्तव्यविमूढ़ थे। केवल दो व्यक्ति ही आनन्द वदन लिये खड़े थे-पद्मदेव और तरंगलोला।
नगरसेठ ने मुनिश्री को वन्दना की और फिर तरंग से बोला-'तरंग! तुम दोनों ने जो निश्चय किया है, उसका मैं विरोध नहीं करता, क्योंकि वह मार्ग उत्तम है। मैं स्वयं संसार के कीचड़ में फंसा हुआ हूं....' उसको त्यागने की मेरी शक्ति नहीं है.... परन्तु तुम्हारी भावना देखकर मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। सर्वत्याग का मार्ग कंटीला है, विपत्तियों से भरा पड़ा है। उन सबको सहने की क्षमता वाला पुरुष ही इसे स्वीकार कर सकता है। तुम धन्य हो, तुम्हारा मार्ग शुभ हो, कल्याणमय हो।'
माता, भाई, भाभी सभी सुबक-सुबक कर रो रहे थे।
पद्मदेव और तरंगलोला-दोनों ने सभी को संसार के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया और अन्त में सर्वत्यागमय मार्ग के अनुसरण में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी। .
पद्मदेव ने सबको बताया कि ये मुनीश्वर ही लुटेरे रुद्रयश हैं, जिन्होंने मुझे और तरंग को लुटेरों से बचाकर मुक्त किया था और स्वयं मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो गए हैं।
सभी मुनीश्वर की ओर देखने लगे।
नगरी में ये समाचार वायुवेग से प्रसृत हो गए। नर-नारी के समूह उस उपवन में आने लगे। नगरी के एक उपाश्रय में भगवान महावीर की शिष्या थीं...... वे भी उपवन में आ पहुंची।
लोगों ने इस त्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
सारसिका भी अपने तीनों बालकों के साथ वहां आ पहुंची। उसके नयन श्रावण-भाद्रपद बरसा रहे थे। और मध्याह्न से पूर्व इस उपवन में एक महान् उत्सव जैसा हो गया।
दीक्षा संपन्न हो गई। तरंगलोला साध्वीश्री के साथ नगर के उपाश्रय में चली गई और पद्मदेव मुनिश्री के साथ अन्यत्र विहार कर गए।
१४४ / पूर्वभव का अनुराग