Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 138
________________ पड़ा। सभी को यह ख्याल था कि कन्या का ससुराल नगरी में ही है, यह परदेश जाने वाली नहीं है,..... इतना होने पर भी जिसने कन्या को पाला-पोसा हो, नवतरुणी बनाया हो, संस्कारित किया हो, कन्या को अपना अंगरूप माना हो, उस कन्या को विदाई देते समय माता-पिता के हृदय में खलबली पैदा हो, यह सहज है। रथ में बैठते-बैठते तरंगलोला माता-पिता के चरणों में नत हो गई...... उसके नयनों से अविरल रूप से अश्रुधारा बह रही थी। माता ने कन्या को छाती से लगाकर कहा-'तरंग! ध्यान रखना। उस घर को अपना घर समझना। सासससुर सभी की सेवा करना ... सभी के प्रति नम्र रहना, कर्तव्य को विस्मृत मत करना...... अहंकार मत करना...' छोटों की अवहेलना मत करना। आज से तेरे सिर पर दो उत्तरदायित्व का भार आ जाता है-एक तो पितृकुल की कीर्ति को अखंड रखना और दूसरा पतिकुल को अपना बनाना-इन दोनों उत्तरदायित्वों को कुशलतापूर्वक निभाना...... मुझे पूर्ण विश्वास है कि तू अपने कुल का दीपक बनेगी।' तरंगलोला में बोलने की शक्ति नहीं थी। भाभियों ने भी ननन्द बाई को गले लगाकर कहा–'बहिन! हम क्या कहें। कहना बहुत चाहती हैं, परन्तु हृदय भर आया है..... ईश्वर तुमको सदा आनन्दमय रखे और तुम सदा प्रसन्न रहो।' सभी भाई उदास से खड़े थे....... उन्होंने अपनी छोटी बहिन के पीठ पर हाथ फेरते हुए आंसुओं के साथ आशीर्वाद के फूल बिखेरे। अन्त में तरंग पिताजी से मिली। नगरसेठ ने सजल नयनों से कहा-'तरंग! तू चतुर है, बुद्धिमान भी है। क्या कहूं? एक बात तू सदा याद रखना कि यह सुख, यह वैभव और यह रूप-यौवन अत्यंत चंचल है, अस्थिर है। धर्म ही एक स्थिर है। तू धर्म को कभी मत भूलना। जैसे नमस्कार-महामंत्र से तूने विपत्तियों का पार पा लिया, वैसे ही धर्म में श्रद्धा रखना' यही मेरा आशीर्वाद है। इस प्रकार पितृगृह के त्याग के क्षण विषादमय हो गए..... और तरंगलोला अपने स्वामी के पास रथ में बैठ गई। विविध वाद्य बज उठे। सारा वातावरण शब्दमय बन गया। जैसे वधूपक्ष के मनुष्यों के हृदय वेदना से व्यथित हो रहे थे, वैसे ही वरपक्ष के मनुष्य हर्ष से उल्लसित हो रहे थे। धनदेव सेठ को आज अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा था..... एक तो खोया पुत्र प्राप्त हो गया था और दूसरे में मानवलोक की लक्ष्मी की वधूरूप में प्राप्ति। पद्मदेव और तरंग का स्वर्णरथ धनदेव के भवन पर पहुंचा। पद्मदेव की १३६ / पूर्वभव का अनुराग

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