Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 140
________________ 'पद्म! अब सभी को आराम करने दो....... बेचारे दास-दासी अनेक दिवसों से कार्यरत रहने के कारण थक गए हैं।' मां की बात सुनकर सभी मित्र खड़े हो गए और मां को नमन कर विदा होने लगे। पद्मदेव जो चाहता था, वह मिल गया। मां को नमन कर वह भी ऊपरी मंजिल पर शयनगृह में जाने के लिए प्रस्थित हुआ। तड़फते हृदय! तरसते नयन! हृदय में उभरती अनन्त बातें! यौवन की तृषा! मिलने की आकांक्षा! __ ऐसे समय में नर-नारी के हृदय में क्या-क्या होता है। वह तो वे ही जान सकते हैं...... शयनकक्ष का द्वार खुला था। पद्मदेव द्वार में प्रविष्ट हुआ। तरंगलोला के सामने बैठी चारों परिचारिकाएं चौंकी और खड़ी होकर बोलीं-'देव! कोमल कली को संभालपूर्वक रखना.... कहीं कुम्हला न जाए.....' यह कहकर सभी चली गईं। पद्मदेव ने शयनकक्ष का द्वार बंद कर दिया। २३. बारह वर्ष पद्मदेव आज परम सुख का अनुभव कर रहा था। उसने मन ही मन सोचा-स्वर्गलोक के सुख भोगने वाले देवताओं के पास भी तरंग जैसी सुंदर स्त्री कहां है? मेरे भाग्य सिकंदर थे, इसलिए मुझे यह योग प्राप्त हुआ है। मन में ऐसे विचार करता हुआ पद्मदेव शयनगृह का द्वार बंद कर लज्जा की प्रतिमूर्ति तरंगलोला के निकट गया। तरंगलोला के अंतर् में विगत भव के वियोग के पश्चात् इस मधुर मिलन की रात्रि का हर्ष था। परन्तु उस समय वह लज्जामणी की लता की भांति संकुचित होकर बैठ गई थी। उसके हृदय में अनेक बातें करने का भाव जागृत था। मिलन के सुमधुर क्षणों को कैसे आनन्दमय बनाया जाए, इसकी कल्पना भी वह कर चुकी थी। स्वामी ज्यों ही खंड में आए तत्काल उनके गले में फूलमाला पहनाकर चरणों में लुठने की बात भी उसने सोच ली थी। परन्तु पद्मदेव को देखते ही वह शर्मिन्दी होकर बैठ गई। पद्मदेव दो क्षणों तक प्रियतमा के मनोरम वदन की ओर देखता रहा, फिर तत्काल स्वर्णथाल में पड़ी एक पुष्पमाला उठाकर तरंगलोला के गले में डाल दी। १३८ । पूर्वभव का अनुराग

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