Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 137
________________ पद्मदेव अश्व से नीचे उतरा और माता-पिता के चरणों में नत हो गया और गद्गद् स्वरों में बोला- 'पिताश्री ! मेरे से अक्षम्य अपराध हो गया माता ने पद्म के सिर को चूमा और पिता ने पद्म को छाती से लगाया । इतने में ही तरंगलोला का रथ भी आ गया। नगरसेठ, आठों भाई, माता और भाभियों ने रथ को घेर लिया। तरंगलोला रथ से नीचे उतरी। लज्जावश उसने अपना सिर माता के वक्षस्थल में छुपा लिया। नगरसेठ ने पुत्री के मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा - 'बेटी ! तूने अपने बाप को अभी तक नहीं पहचाना। तेरी जातिस्मृति की बात मेरे कानों तक पहुंच पाती तो तुझे इतना साहस नहीं करना पड़ता । ' 'पिताश्री ! मैं अपने अपराध की क्षमा कैसे मांगूं ?' कहते-कहते तरंगलोला रो पड़ी। पिता ने भावभरे स्वरों में कहा- 'बेटी! मां-बाप के हृदय संतान के लिए इतने विशाल होते हैं कि कोई उसकी कल्पना ही नहीं कर सकता। किसी प्रकार का क्षोभ मन में मत रखना। सारसिका ने मुझे सारी बात बताई और उसी दिन मैंने वाग्दान तेरे मनोनीत साथी के साथ कर दिया था।' तरंगलोला के आठों भाई अपनी बहिन के प्रति प्रेमभाव दर्शाने लगे और सभी भाभियों ने अत्यंत आनन्द का भाव प्रदर्शित किया। अर्धघटिका वहां विश्राम कर सभी विदा हुए। उसी रात नगरसेठ के भवन पर दोनों परिवार एकत्रित हुए और पद्मदेव ने अपने प्रवास की कथा कही । मात्र एक रात में भोगे परिताप की बात को सुनकर सभी के हृदय वेदना से पीड़ित हो गए । मृगसिर शुक्ला छठ ! इस मांगलिक दिन में धूमधाम के साथ पद्मदेव और तरंगलोला विवाह - सूत्र में बंध गए। धनदेव अपनी एकाकी पुत्री तरंगलोला को नगरसेठ ने बहुत धन दिया ने नगरसेठ को वचन दिया कि वह अपने पुत्र पद्मदेव को विदेश भ्रमण के लिए नहीं भेजेगा। सात दिन तक बारात नगरसेठ के अनुरोध पर रुकी रही। विदाई की वेला ! और जब कन्या को विदाई देने का समय आया तब आनन्द और उल्लास से मुखरित वातावरण करुण बन गया। एकाकी कन्या आठ-आठ भाइयों की एकमात्र बहिन कन्या रा घर की लक्ष्मी होती है, यह सभी जानते थे फिर भी तरंग की भाभियों, माता, भाई और सखियों - सभी के नयन सजल हो गए थे। देवी सुनंदा का दबा रुदन फूट पूर्वभव का अनुराग / १३५

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