________________
सेठ और अधिक न पूछकर, भोजन में मग्न हो गए।
सारसिका आई तब तक सेठजी भोजन से निवृत्त होकर खड़े हो गए थे। सारसिका को देखते ही सेठानी सुनंदा ने पूछा- 'क्या हुआ ?'
'आप तथा सेठजी - दोनों तरंग के चित्रकक्ष में चलें ।' कहकर सारसिका अग्रसर हुई।
सेठ कुछ समझ नहीं सके, इसलिए पत्नी से पूछा - 'क्या बात है ? ' 'सारसिका कुछ कहना चाहती है" चलें"
सेठ-सेठानी - दोनों चित्रकक्ष में सारसिका के पीछे-पीछे आए। दोनों के भीतर आने के पश्चात् सारसिका ने चित्रकक्ष का द्वार बंद कर कहा- 'मैं खोज कर आई हूं" मेरा संशय सही हुआ है" परन्तु जब तक मैं आपको पूरी बात नहीं बताऊंगी, तब तक आप कुछ भी नहीं जान पायेंगे।' सेठ कुछ नहीं समझ पा रहे थे। वे बोले-'तेरा कैसा संशय ? बात क्या है? क्या समझना है? मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । '
'मेरी सखी अपने पूर्वभव के पति के साथ कल रात्रि में चली गई, यह बात कहना चाहती हूं"
ऐसा कभी हो
'पूर्वभव का पति ? सारसिका ! यह तू क्या कह रही है नहीं सकता" मेरी तरंग
बीच में ही सारसिका बोल पड़ी - 'बापू! आप उतावले न हों। पहले सारी बात सुनें।' कहकर सारसिका ने तरंगलोला की पूर्वभव की सारी बात कही। उस दिन उपवन में उसको हुए जातिस्मरण ज्ञान की, फिर पूर्वभव के पति को प्राप्त करने के उद्देश्य से चित्रित चित्रपट्टों की, उन चित्रों को देखकर पद्मदेव को हुए जातिस्मृति ज्ञान की आदि सारी बातें संक्षेप में कह सुनाई । अन्त में धनदेव सेठ के वहां देखी - सुनी बात भी बता दी।
सेठ-सेठानी - दोनों वज्राहत से हो गए थे। वे अवाक् बन गए। कुछ क्षणों पश्चात् सेठ बोले- 'सारसिका ! यदि तू मुझे यह बात पहले बता देती तो मैं तरंग का सगपण पद्मदेव के साथ कर देता ।'
'मैं आपको कैसे कहती ? तरंग चाहती थी कि ऐसी बात माता-पिता के समक्ष न जाए तो ठीक और गत रात्रि में मैंने उसे बहुत समझाया, परन्तु वह इतनी अधीर बन गई थी कि यदि पद्मदेव उसको नहीं मिलते तो वह प्राणत्याग कर ऐसा उसने निर्णय भी कर लिया था मैं उसके अलंकार लेने वहां से मार्ग में मुझे पिताजी मिल गए और मुझे घर जाना पड़ा
देती
चली
'दोनों किस दिशा में गए हैं, क्या तू जानती है?'
थी
'नहीं, मेरे साथ तो केवल अपने प्रियतम से मिलने जितनी बात ही हुई वहां पहुंचने के पश्चात् उसने ऐसा साहस करने का निश्चय किया १३० / पूर्वभव का अनुराग