Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 124
________________ अंधकारमय है। मैं प्रकाश करता हं,' यह कहकर उसने लकड़ी के दोनों टुकड़ों को परस्पर घिसा, दोनों सुलग उठे। प्रकाश होने लगा। तीनों उस संकरे मार्ग से झुककर चलने लगे। प्रकाश क्षीण था। तीनों धीरेधीरे चलते-चलते गुफा मार्ग के बाहर के द्वार पर आ पहुंचे। रुद्रयश एक लोहे की कील को धीरे-धीरे घुमाने लगा। कुछ ही क्षणों में द्वार खुल गया, शिला खिसक गई। तीनों बाहर आ गए। रुद्रयश ने गुप्त तरीके से द्वार पुनः बंद कर दिया। __अंधेरी रात परन्तु स्वच्छ आकाश.... चंद्र का मंद प्रकाश चारों ओर छिटक रहा था। रुद्रयश इस प्रदेश के सभी मार्गों का ज्ञाता था, इसलिए वह एक पगडंडी के मार्ग से आगे बढ़ा। पद्मदेव और तरंगलोला भी उसके पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर हिंस्र पशुओं के शब्द सुनाई देने लगे। पद्मदेव बोला-'मित्र! हिंस्र पशुओं के शब्द आ रहे हैं।' _ 'हां भाई! परन्तु डरने की कोई बात नहीं है। मेरी कमर में छुरिका है और रास्ते में सूखी लकड़ी मिल जाएगी' रुद्रयश ने कहा। वनप्रदेश गाढ़ और भयंकर था। ताराओं का क्षीण प्रकाश गाढ़ वन के अंधकार का भेदन करने में असमर्थ था। किन्तु इन्हें अंधकार में देखने की आदत पड़ गई थी। रुद्रयश चाहता था कि सूर्योदय से पूर्व वनप्रदेश को लांघकर मैदान में पहंच जाना लाभदायक होगा। तब पीछे का कोई भय नहीं रहेगा। तीनों विश्राम किए बिना ही अविरल गति से आगे बढ़ रहे थे। कांटे, पत्थर, ऊबड़-खाबड़ भूमि उनके लिए गति-रोधक नहीं थे। समय के साथ-साथ तीनों चल रहे थे। प्रभात का समय हुआ। पौ फटी। पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा। प्रात:काल की पवन-लहरें ताजगी और प्रसन्नता बिछाने लगीं। वनप्रदेश पूरा हुआ.... सामने पर्वतों वाली भूमि दिखाई पड़ी। रुद्रयश बोला-'तुम दोनों थक गए, ऐसा प्रतीत हो रहा है। किन्तु इस प्रकार चले बिना पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। अब सामने दीखने वाली टेकरी के पास पहुंचने पर मैदान दिखाई देगा और फिर कोई भय नहीं है।' पद्मदेव बोला-'मित्र! तुमने हमें जीवनदान दिया है....... मेरी एक प्रार्थना है। तुम्हें स्वीकार करनी होगी।' रुद्रयश ने हंसते हुए कहा-'पहले हम उस टेकरी पर पहुंच जाएं। वहां हमारे विषय में किसी को कोई पता नहीं लगेगा। फिर भी दस्युराज के हाथ लंबे हैं...... इसलिए भयमुक्त होना हमारा पहला कदम है।' रुद्रयश का कथन उपयुक्त था। प्रभात वेला की एक घटिका बीतते-बीतते १२२ / पूर्वभव का अनुराग

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