Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 122
________________ रुद्रयश ने खड़े होकर तरंगलोला से कहा - ' बहिन ! तू कोमलांगी है। कब तक खड़ी रहेगी? यह स्थान तेरे योग्य नहीं है, यह मैं जानता हूं, परन्तु दूसरा कोई उपाय नहीं है। मैं एक कंबल ला देता हूं। तू उसको बिछाकर बैठ जा ।' रुद्रयश ने एक कंबल मंगवाया। तरंगलोला उसको एक ठीक स्थान पर बिछाकर बैठ गई । तरंगलोला की वेदना का अन्त नहीं था। वह समूचे दिन खड़ी रही थी । सामने खंभे से प्रियतम बंधे हुए थे। ऐसी विकट स्थिति में वह भला कैसे बैठ पाती ? वह स्वामी की ओर देखकर बोली- 'प्रियतम ! आपकी यह दशा देखकर बैठने का मन ही नहीं होता । ' 'प्रिये तुम मेरी चिन्ता मत करो। मैं पुरुष हूं। विपत्ति में धैर्य रखना ही मेरा पौरूष है। तू घड़ी भर आराम कर परन्तु तरंगलोला पुनः स्वामी के पास खड़ी हो गई । देवी के मंदिर में आरती के स्वर सुनाई दे रहे थे। कोलाहल शांत हुआ। रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारंभ हुआ। वहां बैठे हुए अन्य साथियों से रुद्रयश बोला- 'अब तुम सभी जा सकते हो।' सभी साथी चले गए। मध्यरात्रि का समय हुआ । तरंगलोला अभी तक प्रियतम के पास ही खड़ी थी । मशालें जल रही थीं। उनका मीठा प्रकाश बिखर रहा था। सर्वत्र शांत वातावरण था। रुद्रयश तरंगलोला की ओर देखकर बोला- ' बहिन ! खड़ी खड़ी थक जाओगी। कुछ विश्राम कर लो। ' 'भाई ! इस प्रकार जकड़े हुए पति को देखकर कौन पत्नी विश्राम लेना चाहेगी ? तुम मेरी चिन्ता मत करो। मुझे खड़े रहने में आनन्द ही आनन्द है । तरंगलोला ने कहा । ' ये शब्द सुनकर रुद्रयश का हृदय खलबला उठा वह विचारों में डूब गया। १९. छुटकारा कोई क्षण ऐसा आता है जब पाषाण हृदय भी कोमल पंखुड़ी जैसा बन जाता है। तरंगलोला के अतीत जन्म की कथा सुनकर रुद्रयश विचार में मग्न हो उसको उसके पिता की स्मृति हो आई " अपनी वर्तमान स्थिति अखरने लगी। वह अपने आसन से उठा और पद्मदेव की ओर अग्रसर होकर बोला- ' श्रेष्ठीपुत्र ! आप एक निर्दय और जालिम गया अपना धर्म प्रत्यक्ष हुआ १२० / पूर्वभव का अनुराग

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