Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 126
________________ विचलित नहीं हुआ। दोनों को सरोवर की ओर प्रस्थित करा स्वयं दूसरे मार्ग पर आगे बढ़ गया। मार्ग वृक्षशून्य था..... अपने उत्तरीय में फलों को बांध तरंगलोला पद्मदेव के पीछे-पीछे चल पड़ी। परन्तु जब तक मन में भय था, मौत सिर पर मंडरा रही थी, तब तक थकान का अनुभव नहीं हो रहा था और भय दूर होते ही थकान एक साथ शरीर पर उतर आई और अब एक कदम चलना भी भारी हो गया। सौ-पचास कदम चलने के पश्चात् तरंगलोला बोली-'स्वामीनाथ! मेरे पैर सूज कर खंभे जैसे हो गए हैं। अब मैं एक पैर भी आगे नहीं चल सकती।' "प्रिये! यहां तो कोई वृक्ष भी दिखाई नहीं देता...' धूप तीव्र होने के बाद चलना कठिन हो जाएगा...... बायें हाथ की ओर कुछ वृक्ष दीख रहे हैं, वहां कोई जलाशय होना चाहिए। हम उसी ओर चलें' यह कहकर पद्मदेव ने तरंगलोला का हाथ पकड़ा। दोनों चलने लगे..... परन्तु तरंगलोला के पैर उठ नहीं रहे थे। यह देखकर पद्मदेव ने प्रियतमा को दोनों हाथों से उठाकर कंधे पर बिठा दिया...' मानो कि फूलों का गुच्छा उठाया हो..... और वह वृक्षों की ओर चल पड़ा। तरंगलोला बोली-'स्वामिन् ! मेरा भार उठाकर आप चलें, यह मुझे पसन्द नहीं है। मुझे नीचे उतारो.....' 'पगली मैं पुरुष हूं...... पत्नी भार नहीं होती, वह तो प्रेरणा है...... अरे! वह भी भार नहीं होती जो पुरुष के मन को भा जाती है...... और तुम जैसी सुंदरी तो भार कैसे?.......' ___ बीच में ही तरंगलोला बोली-'नहीं, प्राणेश! मुझे नीचे उतारो..... नहीं तो मैं सौगंध दूंगी।' 'परन्तु तुम चल नहीं पाओगी।' 'तुम्हारा हाथ पकड़कर अवश्य चल सकूँगी,' तरंग ने कहा। पद्मदेव ने पत्नी को नीचे उतारा। दोनों धीरे-धीरे चलने लगे। वृक्षराजी के पास पहुंच कर उन्होंने देखा कि एक निर्मल जलवाली छोटी सरिता बह रही है। दोनों ने प्रात:कर्म संपन्न किया। पद्मदेव गांव की खोज में एक टेकरी पर चढ़ा और अत्यंत हर्ष के साथ तरंगलोला के पास आकर बोला-'प्रिये! यहां से लगभग एक कोस की दूरी पर गांव दीख रहा है। हम वहां चलें और दो-चार दिन वहीं विश्राम करें।' वे आगे बढ़े। आगे एक तालाब के पास आये। दोनों ने पुनः हाथ, पैर, मुख धोए। फिर दोनों ने ठंडे पानी से आंखों को छिड़का। फिर जलपान किया। ग्राम-नारियां जल भरने इसी तालाब की ओर आ रही थीं। इस जोड़ी को १२४ / पूर्वभव का अनुराग

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