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वे तीनों एक टेकरी के पृष्ठभाग में रहे मैदान में पहुंच गए।
तीनों एक वृक्ष के नीचे विश्राम लेने बैठे... तरंगलोला के दोनों चरण सूज गए थे....... पद्मदेव के चरण कांटों से लहलुहान हो गए थे।...... फिर भी मुक्ति के आनन्द के आगे यह दर्द गौण बन गया था।
रुद्रयश बोला-'बहिन! कल तुमने उपवास किया था। मैं रास्ते से कुछेक फल ले आया हूं...' तुम उन्हें खाकर अपनी क्षुधा शांत करो..... अब हम संपूर्णरूप से निर्भय स्थान में पहुंच चुके हैं। देखो, यहां से आधे कोस की दूरी पर एक सुन्दर सरोवर है... वहां प्रात:कार्य से निवृत्त होकर फिर तुम दोनों आगे बढ़ जाना....... कुछ दूरी पर चार-पांच गांव भी हैं। किसी भी गांव में कौशांबी का रास्ता पूछ लेना।'
पद्मदेव बोला-'मित्र मेरी प्रार्थना.....।' 'बोलो...।'
'तुम भी हमारे साथ चलो...... जीवनदाता का सत्कार करने का मुझे अवसर दो' पद्मदेव ने कहा।
‘हां भाई! तुम हमारे साथ ही चलो.... तुम अब लुटेरों के सरदार के पास तो जाओगे नहीं..... तो हमारे वहीं रहना। पिताजी तुमको किसी धंधे में जोड़ देंगे.... वे तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूलेंगे।' तरंगलोला ने कहा।
'बहिन! तुम्हारी करुण कथा ने मेरे हृदय के पंख खोल डाले हैं...... जब तक मैं अपने पापों का प्रायश्चित्त नहीं कर लूंगा तब तक मुझे शांति नहीं मिलेगी...... मैं अपने मार्ग पर चला जाऊंगा।' ।
_ 'मित्र! तुम्हारी भाषा संस्कारित-सी लग रही है। तुम यथार्थ में लुटेरे नहीं हो। क्या परिचय दोगे?' पद्मदेव ने कहा।
___ रुद्रयश एक गहरा नि:श्वास छोड़ते हुए बोला-'मेरा परिचय स्वयं मुझको ही मथने वाला है। मेरे पिताजी वाराणसी नगरी के महापंडित हैं...... मैं उनका इकलौता पुत्र हूं। मेरा नाम रुद्रयश है। किन्तु बुरी संगति के कारण मैं अपने कुलधर्म के प्रति सजग नहीं रहा और यौवन के प्रारंभ होते ही चोरियां, लूटखसोट आदि में लग गया। पिताजी को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने मुझे कुलकलंक मानकर घर से निकाल दिया। एक गांव में लुटेरे सरदार से परिचय हुआ और मैं उनका साथी बन गया। मैं अपने कुलधर्म-जैनधर्म को भूल गया..... वृद्ध पिता की ममता भी भूल गया.....मांसाहार, शराब, परनारीगमन, जुआ, लूट, हिंसा आदि क्रियाओं में तन्मय हो गया। यही मेरा परिचय है।'
‘रुद्रयश! तो तुम हमारे साथ ही चलो। मैं तुम्हारा पूर्ण सहयोग करूंगा।' पद्मदेव ने कहा। तरंगलोला ने भी खूब आग्रह किया, परन्तु रुद्रयश अपने निश्चय से
पूर्वभव का अनुराग / १२३