Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 75
________________ लगी...' इतना कहकर तरंगलोला क्षणभर के लिए रुकी। सारसिका एकाग्रमन से अपनी सखी का पूर्वभव सुनने लगी। तरंगलोला को मौन देखकर वह बोली-'आगे क्या हुआ?' 'सारसिका! विगत जीवन का वह वियोग आज भी मेरे मन को मथित कर रहा है, अपार वेदना दे रहा है।.... मैं रुदनभरे हृदय से अपने स्वामी के लहूलुहान शरीर को बार-बार पंपोल रही थी, उस समय पारधी वहां आया। उसने मेरे स्वामी के शरीर से बाण निकाला... टूटे हुए पंख ठीक किए... फिर कुछ सूखी लकड़ियां इकट्टी कर मेरे प्रियतम के मृत शरीर का अग्निदाह किया। मैं उस समय आकाश में रुदन करती हुई, अन्यमनस्क भाव से उड़ रही थी और यह दृश्य देख रही थी। मैंने मन ही मन सोचा, प्रियतम के बिना मैं एक क्षण भी जीवित कैसे रह सकूँगी ? क्या हमारे अमिट स्नेह, संबंध का वियोग ही फल है? नहीं... नहीं..... नहीं...... मुझे भी अपने स्वामी का ही अनुसरण करना चाहिए. प्राणाधार के बिना जीना भी क्या जीना? प्रेम की हृदयवीणा टूट चुकी है...... अब ऐसे टूटे हृदय से कब तक चिपकी रहूंगी...... अब इसमें से प्रेमगीत कभी प्रगट नहीं होगा। और यदि मेरे स्वामी मेरे से कहीं दूर चले जाएंगे तो भला मैं कहां भटकती रहंगी? ऐसे विचार आते ही मैं स्वामी की उस जलती हुई चिता में कूद पड़ी और स्वामी की जलती हुई काया के साथ मैंने भी अपनी काया को भस्मसात् कर डाला। सखी! यह मेरे अतीत का वृत्तान्त है। आज जब मैंने चक्रवाक युगलों को क्रीड़ा करते देखा तो वे सारे प्रसंग स्मृतिपटल पर उभर आए।' यह कहकर तरंगलोला एक वेधक नि:श्वास के साथ वहीं मूर्च्छित हो गई। सारसिका ने तत्काल शीतलोपचार किए। तरंगलोला की मूर्छा टूटी। उसने सारसिका का हाथ पकड़कर कहा–'सखी! मैंने यह सारा वृत्तान्त तुझे बताया है। अन्यत्र इसका कथन न हो। जब तक मैं अपने पूर्वभव के पति को प्राप्त न कर लूं तब तक तू इस वृत्तान्त को अपने हृदय के वज्रमय कपाट में बन्द रखना। किसी को इसकी भनक भी न पड़े। सारसिका! मैंने तेरे से कोई बात गुप्त नहीं रखी है...... मात्र एक बात कह न सकी थी..... बचपन में जब भी मैं जलाशय देखती तब स्मृतियां उभरती..... मुझे पूर्वभव का अभास होता। सभी ने इसे चौंकना माना और मुझे जलाशय से दूर-दूर रहने के लिए बाध्य किया..... उस समय मुझे पूर्वभव का स्मरण स्पष्ट नहीं था..... आज वह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गया है..... आज मैंने अपने पूर्वजन्म के पति चक्रवाक को स्पष्टरूप से देखा है और मैंने यह भी निश्चय कर लिया है कि यदि मैं इस जन्म में किसी को पतिरूप में स्वीकार करूंगी तो पूर्वभव के पति को ही स्वीकार करूंगी, दूसरे किसी को नहीं......" 'तरंग, तुझे ऐसा संकल्प नहीं करना चाहिए। मृत्यु के पश्चात् कौन-सा पूर्वभव का अनुराग / ७३

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