Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 110
________________ हूं कि वे तेरी अनुपस्थिति को न जान पाएं, उससे पूर्व ही तू भवन में लौट जा । ज्यों-त्यों मैं तुझे प्राप्त करने का पूरा प्रयत्न करूंगा, क्योंकि तेरे बिना मेरा जीवन शून्य हो रहा है और आज के इस मिलन को हम कितना ही गुप्त रखना चाहें, किन्तु तेरे पिता की नजरों से वह गूढ़ नहीं रह सकेगा " इस प्रकार पद्मदेव कुछ आगे कह रहा था कि राजमार्ग पर एक व्यक्ति गुनगुनाते हुए चल रहा था। वह कह रहा था - 'स्वयं सामने आई हुई प्रिया, यौवन, अर्थ, राज्यलक्ष्मी, वर्षा और चांदनी का जो उपभोग कर लेता है वह धन्य है। जो उपभोग नहीं कर पाता, वह भाग्यहीन है। प्राणों से प्रिय ऐसी प्रिया को पाकर भी जो छोड़ देता है, वह मनुष्य अपनी मनोकामना को कभी पूरा नहीं कर सकता । ' तीनों यह सुनकर चौंके। कौन होगा यह ? ऐसी मध्यरात्रि में इस प्रकार गुनगुनाने का प्रयोजन ही क्या हो सकता है ? और वह भी इस स्थल पर ? सारसिका बोली- 'श्रेष्ठिपुत्र ! आपके बिना एक क्षण भी जीवित न रह सकने के कारण मेरी सखी ने यह साहस किया है " यदि मैं इसे यहां नहीं लाती तो यह मृत्यु की गोद में समा जाती । ' पद्मदेव ने तरंगलोला की ओर देखा, फिर बोला- 'ओह ! तब तो एक ही मार्ग है तरंगलोला प्रियतम की ओर देखकर मधुर स्वरों में बोली- 'कौन - सा ?' 'हमें यहां से परदेश चले जाना चाहिए। तेरे पिता सावचेत हों, उससे पूर्व ही यहां से पलायन कर जाना चाहिए" ऐसा करने पर ही अन्तराय से बचकर आनन्दपूर्वक रह सकते हैं । ' 'स्वामिन्! अब मैं पुनः अपने माता-पिता के घर जाऊं, यह संभव नहीं आप जहां जायेंगे, मैं आपके पीछे छाया की भांति चली आऊंगी।' कुछ सोचकर पद्म बोला- 'हमें यही करना होगा" हम यहां से पलायन कर जाएं मैं भवन में जाकर प्रवास की तैयारी कर लूं तुम दोनों यहीं खड़ी यहां किसी प्रकार का भय नहीं है यह कहकर पद्मदेव भवन में रहना' तैयारी करने प्रस्थित हुआ। तरंगलोला स्नेहिल दृष्टि से पद्म की ओर देखती हुई खड़ी रही। सारसिका बीच में ही तरंग बोली- 'मैं ने कहा - 'सखी! इस प्रकार पलायन करने से समझती हूं सखी! परन्तु इसके सिवाय और कोई निष्कंटक मार्ग नहीं है। यदि हम भवन में चलेंगे तो कोई न कोई देख लेगा तो झंझट खड़ा हो जाएगा प्रियतम के बिना एक क्षण भी रह पाना मेरे लिए कठिन हो जाएगा।' और 'ओह सारसिका चिन्तामग्न हो गई । मेरी पेटी खुली पड़ी तरंगलोला बोली- 'तू शीघ्र भवन की ओर जा है 'उसमें मेरे अलंकार ले आ तथा दो युगल वस्त्र भी लेती आना " ।' १०८ / पूर्वभव का अनुराग

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