Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 108
________________ विपत्ति के साथ लड़ना सीखना चाहिए। साहसिक व्यक्ति विपत्तियों से डरता नहीं । साहस करने वाला ही संसार में विजेता बनता है। प्रारंभ काल में जो कार्य कठिन लगता है वही करते-करते सरल प्रतीत होने लगता है। मेरी इतनी प्रबल उत्कंठा को जानती हुई भी यदि तू मेरे प्रिय के पास नहीं ले जाती है तो तेरी आंखों के सामने ही मैं अपने तुच्छ प्राणों की बलि दे दूंगी और मृत्यु की गोद में सुख से सो जाऊंगी।' सारसिका ने फटी आंखों से तरंगलोला की ओर देखा । तरंगलोला बोली- 'सखी! तू क्षणमात्र भी विलंब मत कर। मुझे येन-केनप्रकारेण उनके पास ले चल । यदि तू मुझे मृत देखना नहीं चाहती तो मेरी प्रिय सखी के रूप में यह अपकृत्य भी करने के लिए तैयार हो जा... ' सारसिका किंकर्त्तव्यविमूढ़ बन गई। कुछ क्षण सोचकर वह उठी और बोली- 'तेरी मृत्यु से तो इस अपकृत्य को करना उचित है मेरे साथ चल, तरंगलोला हर्षित हो उठी। अभी रात्रि का दूसरा प्रहर चल रहा था । दोनों सखियां नीचे उतरीं । तरंग के हृदय में प्रियतम से मिलने की भावना तीव्र हो रही थी। उसने अपने श्रेष्ठ कौशेय वस्त्र पहने उत्तम वज्र और नीलमणि के अलंकार धारण किए। फिर भवन के पीछे के भाग के द्वार से दोनों सखियां राजमार्ग पर आ गईं। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर चल रही थीं। राजमार्ग पर यदा-कदा लोग आते-जाते थे मुख्य बाजार में अभी तक कुछ दुकानें खुली थीं। सेठ - मुनीम अपने-अपने कामों में तल्लीन थे। तरंगलोला का चित्त प्रियतम से मिलने के लिए इतना आतुर था कि मार्गगत मनोज्ञ-अमनोज्ञ दृश्यों से उसका मन अजान था । पैदल कभी न चलने वाली तरंग आज निर्भयता से, बिना थके, आगे बढ़ती जा रही थी । लगभग एकाध घटिका चलने के पश्चात् सारसिका और तरंगलोला धनदेव सेठ के भवन के पास आ पहुंची। सद्भाग्य से पद्मदेव अपने मित्रों के साथ बाहर ही बैठा था। वह वीणावादन कर रहा था। सारसिका बोली- 'तरंग ! देख, जो वीणावादन कर रहे हैं, वे ही पद्मदेव तेरे पूर्वभव के प्रियतम हैं। देख, कितने सुडौल, सुंदर ? अच्छी तरह से देख ले. फिर हम चलते हैं। मन भर कर देख ले 'परन्तु इनसे मिले बिना " कहते-कहते तरंग रुक गई। क्योंकि पद्मदेव वीणा सेवक को देकर, मित्रों को विदा करने राजमार्ग पर आ गया था। प्रस्थान करते हुए एक मित्र बोला- 'पद्म ! उस बात की चिन्ता मत करना' चिन्ता भरे रात्रि - जागरणों से शरीर क्षीण हो जाता है। व्यक्ति आधि और व्याधि से ग्रस्त हो जाता है।' १०६ / पूर्वभव का अनुराग

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