Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 117
________________ यह काली सदा प्रसन्न रहेगी और हम सब पर अमृत की वर्षा करती रहेगी जोड़ी मेरी कल्पना से भी अत्यधिक सुंदर और तेजस्वी है - तुम दोनों को बंदी बनाकर रखना बलिदान दिन तीन दिन बाद है "ये यहां से पलायन न कर जाएं, यह सावचेती रखना ऐसा भोग जीवन में एकाध बार ही प्राप्त होता है।' लुटेरों के नायक ने मस्तक झुकाया । यह नायक अन्य कोई नहीं, किन्तु वाराणसी नगरी के महापंडित का एकाकी पुत्र रुद्रयश था, जिसको पिता ने दुराचरण के कारण घर से निकाल दिया था और जो इस दस्यु टोली के साथ मिल गया था। रुद्रयश दोनों को लेकर सरदार के घर से विदा हुआ। १८. पाषाण भी पिघल गया महापंडित का पुत्र रुद्रयश लुटेरों की इस टोली के साथ जुड़ गया था । उसके साहस और चालाकी पर मुग्ध बनकर सरदार ने इसे बीस लुटेरों का नायक बना दिया था। इस गुफा नगरी में वह बहुत मौज-मस्ती से रह रहा था। वह सरदार का बायां हाथ बन बैठा था " मांसाहार, शराब और बाहर से पकड़कर लायी गई स्त्रियों के साथ व्यभिचार यह उसके जीवन का क्रम बन गया था। आज तक वह कभी अपने अभियान में निष्फल नहीं हुआ था। आज वह रुद्रयश अपनी टोली के साथ गंगा के किनारे एक गांव को लूटने के मन से निकला था। परन्तु किनारे पर पद्मदेव और तरंग को देखकर, उसके शरीर पर चमकने वाले आभूषणों से मुग्ध बन गया था। इसलिए गांव को लूटने के बदले इन दोनों को लूटने के लिए तैयार हुआ था और भाग्योदय से उसे अवसर मिल गया। उसने सारा धनमाल लूट कर दोनों को बंदी बना वह अपनी गुफा नगरी में आ गया था। सरदार ने दोनों की बलि देने के लिए रुद्रयश को दोनों को संभालकर रखने की बात कही थी। रुद्रयश दोनों को एक गुफागृह में ले गया। एक साथी बोला- 'सरदार ! यह मनुष्य बलवान् प्रतीत होता है। दोनों को खुला रखेंगे तो इनके भागने का डर है।' रुद्रयश ने हंसते हुए कहा- 'मेरी दृष्टि इन पर ही लगी हुई है। तू मेरे घर से एक रज्जु ले आ।' लुटेरा वहां से चला। पद्मदेव और तरंगलोला–दोनों उस गुफागृह में अकुलाहट अनुभव कर रहे थे। वे दोनों एक ओर खड़े थे। फर्श टूटा-फूटा, बीच-बीच में गड्ढे और पथरीला पूर्वभव का अनुराग / ११५

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