Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ जीवा बना है 'हैं! आत्महत्या ?' 'हां!' सारसिका ने पद्मदेव के साथ हुई सारी बात विस्तार से बताते हुए कहा - 'तरंग ! तू एक बात को याद रख कि वीर पुरुष अपने संकल्प को सफल बनाने के लिए कोई न कोई उपाय निकाल लेते हैं। जब तक सशक्त उपाय नहीं मिलता तब तक वे कालक्षेप अवश्य करते हैं, पर निष्क्रिय नहीं रहते। तेरा प्रियतम जितना सुंदर और शालीन है, उतना ही वीर और धीर है। स्नेह के बंधन धैर्य से शिथिल नहीं होते, किन्तु और अधिक सुदृढ़ होते हैं।' फिर सारसिका ने भी पद्मदेव का पत्र पढ़ा। वह बोली- 'पद्मदेव का पत्र अर्थयुक्त है। उन्होंने मेरे द्वारा यह कहलाया है कि पत्र उचित समय पर आया, अन्यथा न जाने क्या हो जाता। सखी! अभी तक हमारा मनोवांछित हो रहा है धैर्य रखना है... मेरी आत्मा कहती है कि तुझे तेरा प्रियतम अवश्य मिलेगा।' तरंगलोला के नयन चमक उठे। आशा अमर धन है। उसका गीत संजीवनी होता है। अन्यथा आज रात्रि में वे आत्महत्या करने वाले ही थे १६. नगरी का त्याग तरंगलोला ने प्रियतम के पत्र को पुनः पढ़ा। प्रेमी व्यक्ति परस्पर के पत्र जितनी बार पढ़ते हैं, उतनी ही बार उनको उन पत्रों में कुछ न कुछ नूतन बात मिलती है। प्रिय के पत्र पढ़ने में न थकान आती है और न ऊब ही महसूस होती है। अनेक बार मोह और प्रेम एक ही दिखाई देने लगते हैं और उनमें भेद करना तब सरल नहीं होता । मनुष्य तब मोहांध बन जाता है। पद्म के पत्र को दो-तीन बार पढ़कर तरंग बोली- 'सखी! इस संदेश में अन्तःकरण की कविता भरी है। ऐसा मुझे प्रतीत होता है । ' 'मिलन की तमन्ना से ओतप्रोत मन पागल-सा बन जाता है और पागल मन एक मधुर काव्य-सा प्रतीत होता है मुझे तो पूर्वभव का अथवा इस भव का ऐसा कोई अनुभव है नहीं, तो फिर मैं क्या कहूं ? परन्तु तेरे नयनों के तेज से कुछ कल्पना कर सकती हूं" मैं ' 'क्या ?' 'इस क्या का उत्तर मेरे पास नहीं है चल, हम दोनों छत पर चलती हैं। और वहीं दो शय्याएं बिछाकर एकान्त में निश्चिन्तता से कुछ बातें करें' कहकर सारसिका खड़ी हुई। तरंगलोला को यह प्रस्ताव उचित लगा, किन्तु प्रतिक्रमण का समय हो जाने के कारण वह बोली- 'सारसिका ! दासी को आज्ञा कर देती हूं" छत पर जाने १०४ / पूर्वभव का अनुराग

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148