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'उनके बिना इतना समय कैसे लगता? तुम्हारा संदेश मैंने उन्हें दे दिया...... उनका संदेश लेकर आई हूं और मुझे यह विश्वास हो गया है कि तुम दोनों पूर्वभव के प्रेमी हो।' सारसिका ने कहा।
तरंगलोला हर्षातिरेक से सारसिका से लिपट गई।
उसी समय बाहर से एक दासी ने आवाज दी-बहिन! सेठानीजी प्रतीक्षा कर रही हैं।'
_ 'तू जा, मैं आ रही हूं' कहकर तरंगलोला ने सारसिका से कहा-'सखी! मुझे सारी बात बता।'
'मां तुझे बुला रही है। बात छोटी नहीं है, लंबी है....... चलो, हम ब्यालू कर लें...... फिर निश्चित होकर बात करेंगी।'
दोनों सखियां भोजनगृह में गई। भोजन कर तरंगलोला सारसिका को साथ ले अपने खंड में आ गई। उसके पीछे-पीछे एक दासी दीपमालिका जलाने के लिए खंड में आई।
दासी के जाने के पश्चात् सारसिका ने खंड का द्वार बंद कर अपने उत्तरीय के अंचल में बंधे पद्मदेव के पत्र को तरंगलोला के हाथों में देते हुए कहा- 'सखी! पहले तू उनका संदेश पढ़ ले।'
दीपमालिका के प्रकाश में तरंगलोला ने अपने पूर्वभव के पति का पत्र पढ़ना प्रारंभ किया। उसमें लिखा था
'मेरे अन्त:करण की सुधारूपिणी और स्नेह रानी तरंगलोला को मेरा स्नेहस्मरण। जिसका वदन कमल सदृश है और जिसका पूरा शरीर अनंग के बाणों से आहत है तथा अपूर्व वेदना का अनुभव कर रहा है उस युवती का सदा मंगल हो। तीव्र वियोग के मध्य भी जिस स्नेह-बंधन से अपने को बांध रखा है उस मकरध्वज को प्रणाम। मैं भी प्रेम से पूर्ण आहत हूं, घायल हूं। पूर्वभव की स्मृति ने मुझे झकझोर डाला है। जब तक तू मुझे प्राप्त नहीं होगी तब तक मैं तिल-तिल कर जलता रहूंगा....... मैं तुझे प्राप्त करने के विविध उपाय सोच रहा हूं। मेरे माता-पिता तथा तेरे माता-पिता की अनुमति प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न कर रहा हूं। इसमें मेरे मित्र सहयोगी बन रहे हैं। तू धैर्य रखना। मिलना अवश्य होगा..... होगा | आज हम इतने निकट रहकर भी दूर हैं, यह कोई नियति ही है...."तेरे विगतभव का प्रियतम"
पत्र पढ़कर तरंगलोला के नयन आर्द्र हो गए...' वह विचारों में खो गई। यह देखकर सारसिका बोली-'क्यों तरंग! क्या मन चंचल हो गया है?'
'सारसिका! इस पत्र को पढ़ने के पश्चात् मुझे प्रतीत होने लगा कि क्या धैर्य रखने से स्नेह की उष्मा ठंडी तो नहीं पड़ जाएगी?' 'पगली! तेरा पत्र तथा मेरे द्वारा कही गई बात ही तो तेरे प्रियतम का
पूर्वभव का अनुराग / १०३