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करती है, उसमें उल्लास रहता ही नहीं। केवल माता-पिता को संतोष दिलाने के लिए कृत्रिम हंसी हंसती है और अनमने भाव से भोजन करती है। रात में सोने का बहाना मात्र करती है। सारसिका यह सब जानकर अत्यधिक व्यथित हो रही थी। वह बोली-'तरंग! यदि तू इस प्रकार मन की व्यथा को भोगती रहेगी तो तेरा रूप, सौन्दर्य, लावण्य और शक्ति नष्ट हो जाएगी।'
_ 'सारसिका! मैं सब समझती हूं। पर विवश हूं। मेरे पूर्वभव के स्वामी के सुखद संस्मरण एक क्षण के लिए भी मेरे से विलग नहीं होते....... तेरे साथ शतरंज की क्रीड़ा करते समय भी मेरा मन अन्यत्र पिरोए रहता है...... झरोखे से प्रसार पाती हुई चन्द्रकिरणें भी शीतलता के बदले अग्नि के कण ही बरसाती हैं....... फल भी मुझे अप्रिय ही लगते हैं...... मैं रात कैसे बिताती हूं, कोई नहीं जानता ।'
'इसीलिए मैं कहती हूं कि चिंता अग्नि-रहित भयंकर चिता हैं...... यदि तू चिंता में रहेगी तो काया की सुन्दरता नष्ट हो जाएगी...' तू चतुर है.... इतना तो सोच..... क्या इस प्रकार चिंता करने से तू पुन: चक्रवाकी बन जाएगी? क्या स्मृतियों के परों से उड़ने मात्र से तू अपने प्रियतम चक्रवाक से मिल पाएगी? या चक्रवाक स्वयं यहां आ जाएगा? यदि तू कुछ करना चाहती है तो धैर्य को मत गवां। अभी भी एक बड़ी कठिनाई तेरे सामने है। सारसिका ने कहा।
'कौन-सी कठिनाई?'
'यदि चक्रवाक का जीव मनुष्य रूप में जन्मा भी होगा तो तू उसे कैसे पहचान पाएगी?'
'इसके लिए मेरे मन में एक विचार आता है।' 'क्या?'
'मैं चित्रकला जानती हूं। मैंने उसमें निष्णातता प्राप्त की है। मैं चाहती हूं कि मैं अपने पूर्वभव की घटनाओं को सजीवरूप में पट्टिकाओं में अंकित करूं... संभव है मेरे प्रियतम का जीव इन दृश्यों को देखकर प्रतिबुद्ध हो... संभव है उसे भी जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो जाए.....
'तेरा विचार उत्तम है.... तू अपनी कला को साधन बना..... यदि धैर्य के साथ तू चित्रांकन करेगी तभी उनमें सजीवता आएगी और तू भी स्वस्थ रहेगी। भविष्य में कौमुदी पर्व पर हजारों व्यक्ति इस नगर में आते हैं...... तेरे घर में उस दिन महान् उत्सव मनाया जाता है। सामने वाले राजमार्ग से चलते-फिरते सहस्रों व्यक्ति तेरे चित्रांकन-पट्टों को देखें-ऐसी व्यवस्था की जा सकेगी।'
सारसिका वाक्य पूरा करे उससे पूर्व ही तरंगलोला बोल पड़ी-'ओह! तेरी कल्पना सटीक है..... संभव है मेरे पुण्योदय से मेरे स्वामी मुझे प्राप्त हो जाएं,....... ठीक है, यदि मैं चित्रांकन में एकतान हो जाऊंगी तो व्यथा का भार भी हल्का हो जाएगा।' ७६ / पूर्वभव का अनुराग