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पत्नी और पुत्री को घर आए देख सेठ ऋषभसेन ने पत्नी से पूछा-'तुम सब इतने शीघ्र कैसे आ गए। सायं आने वाले थे। क्या वहां मन नहीं लगा या अन्य कुछ...?'
सुनंदा ने तरंगलोला के अस्वस्थ होने की बात कही। तत्काल राजवैद्य को बुला भेजा।
कुछ ही समय पश्चात् राजवैद्य सेठ के विशाल प्रांगण में आ पहुंचे। सुनंदा ने वैद्यराज का सत्कार किया और उन्हें तरंगलोला के शयनकक्ष में ले जाने के लिए स्वयं आगे हुई।
राजवैद्य ने तरंगलोला की फूल-सी काया को देखा। फिर नाड़ी की जांच कर बोले- 'बेटी! सामान्य ज्वर है.... चिंता अथवा शोक के कारण जो ज्वरांश होता है, वैसा ही ज्वरांश है। क्या कोई चिंता अथवा शोक का कारण बना था?'
सारसिका बोली-'हम तो पद्म उपवन में भ्रमणार्थ गए थे। वहां कैसी चिन्ता? कैसा शोक?'
वैद्यराजजी ने उपचार की दो-चार बातें कही और वे विश्राम करने को कहकर वहां से उठे।
सेठ ऋषभसेन ने उनका यथायोग्य सम्मान किया और घर तक पहुंचाने के लिए उत्तम अश्वों वाले रथ की व्यवस्था की।
वैद्यजी वहां से प्रस्थित हो गए। उपचार प्रारंभ हुआ। परन्तु.....
अन्तर् में शोक, चिन्ता और उद्वेग हों तब बाह्य उपचार कारगर नहीं हो सकते।
तरंगलोला के हृदय में जो स्मृति-कुसुम खिले थे वे कुम्हला जाएं वैसे तो थे नहीं। चक्रवाक पति के साथ बिताए गए स्नेहभरे क्षण स्मृतिपटल पर उभरने के पश्चात् कैसे भुलाए जा सकते थे? स्नेहमय जीवन पर जब अकस्मात् वज्राघात होता है तब परिताप का पार नहीं होता. पति को बाण लगा हाथी भाग गया... पारधी ने चिता सुलगाई स्वयं ने अपनी अन्तर्व्यथा शांत करने के लिए इसी चिता में झंपापात किया और पति की जलती हुई काया से लिपटकर भस्मसात् हो गई... एकमेक हो गई... ये सारे दृश्य उसके मस्तिष्क में स्थिररूप से अंकित हो गए थे।
चार-छह दिन बीत गए। तरंगलोला पूर्ववत् स्वस्थ नहीं बनी। उसके मन में तो विगत जीवन के दृश्य ही बार-बार उभर रहे थे..... ओह! मेरे स्वामी मुझे कहां मिलेंगे? कब मिलेंगे? उनके बिना जीवन का अर्थ ही क्या रहेगा? ये विचार तरंगलोला के मन को मथ रहे थे। सारसिका देख चुकी थी कि तरंग का मन उदास रहता है। वह जो कुछ
पूर्वभव का अनुराग / ७५