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शीघ्रातिशीघ्र वहां जाएं, यही उतम मार्ग है.... इसलिए तुझे अपने पिता को कहना चाहिए ।'
_ 'किन्तु मैं कैसे कह सकूँगा? माता-पिता के समक्ष ऐसी बात करना उचित नहीं है। हमें ऐसा कोई उपाय करना चाहिए कि मेरे पिताश्री को सारी बात ज्ञात हो जाए।' पद्मदेव ने कहा।
धनदेव सेठ को सारी बात कैसे बताई जाए, इस विषय में काफी चर्चा हुई। अन्त में एक मित्र ने कहा-'मैं पहले पद्मदेव की माता से मिलूंगा, फिर आगे सोचूंगा।'
यह निर्णय कर सभी मित्र वहां से विसर्जित हुए। यह कल की घटना है और आज ही प्रातः होते-होते पद्मदेव का मित्र शेखर पद्मदेव की माता के पास आया।
पद्मदेव की माता धर्माराधना कर दंतघावन के लिए बैठी थी। इतने में ही शेखर वहां गया और नमन कर बोला-'मां! एक महत्त्व की बात लेकर आया हूं।'
'तो बोल बेटा!' 'तो आप भवन के ऊपरी कक्ष में पधारें।'
मां को आश्चर्य हुआ। वह जानती थी कि शेखर पद्मदेव का प्रिय मित्र है। मां उठी और शेखर के साथ भवन के उपवन की ओर गई। वहां एक आम्रवृक्ष के पास पहुंचते ही मां ने पूछा-'शेखर! क्या कहना चाहता है?'
'मां! इन दो दिनों में आपने पद्मदेव में कुछ देखा है?'
‘हां बेटा! दो-तीन दिनों से पद्म कुछ अनमना-सा रहता है...... भोजन करने बैठता है तो पूरा भोजन नहीं करता..... न जाने उसके वदन से प्रसन्नता लुप्त कैसे हो गई ? मैंने कई बार पूछा, परन्तु वह कुछ नहीं कहता. आज तो मैं राजवैद्य को बुलाने वाली थी ।'
शेखर बोला-'मां! इसको प्रसन्न करने की औषध राजवैद्य के पास नहीं है...... हम चारों मित्रों ने बहुत उपायों के बाद इसके मन को जानने में सफलता प्राप्त की है।'
'उसके मन में क्या है? यहां तो कोई कमी नहीं है.....जो मांगता है वह मिल जाता है...... फिर....'
मां! कुछेक वस्तुएं ऐसी होती हैं जो मांगी नहीं जा सकती...' लज्जा की दीवार सामने आ जाती है। आप तो जानती ही है कि वह अब युवा हो गया है
और हम चारों मित्रों में वह अकेला ही कुंआरा है। इसको अब विवाह के बंधन में बांधना आवश्यक हो गया है।'
'अरे भाई! इस वर्ष हमने दस लड़कियां उसे दिखाई, परन्तु वह नकारता रहा है, इसके पिता भी इस विषयक चिंता करते रहे हैं।'
पूर्वभव का अनुराग / ९३