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थे....... वह दिखाई नहीं दे रही थी। वह कहां गई होगी? संभव है मेरे प्रयत्न को निष्फल होते देखकर वह निराश होकर घर चली गई हो! परन्तु ऐसा हो नहीं सकता। वह मुझसे मिले बिना कभी जा नहीं सकती।
इन विचारों में खोयी हुई तरंगलोला दतौन कर रही थी, इतने में ही एक दासी ने आकर कहा-'उस भवन से सभी चित्रपट्टों को सावधानीपूर्वक लाकर आपके निजी खंड में रख दिए हैं।'
'सारसिका क्या कर रही है?'
'ज्ञात नहीं.... वे तो भवन में आई ही नहीं ...... पश्चिम रात्रि में वे एक बार जलपात्र लेने आई थीं..... फिर मैंने उन्हें नहीं देखा...'
'जलपात्र लेने? वह तो रात्रि में जलपान करती ही नहीं।'
“किस लिए जलपात्र ले गई मैं नहीं जानती....... मैं तो बाहर सो गई थी...... पानीपात्र की आवाज हुई और मेरी नींद टूटी। मैंने देखा, वे जलपात्र लेकर जा रही हैं।'
‘फिर वह भवन में आई ही नहीं?' 'हां, वे भवन में नहीं आईं।' 'तू चित्रपट्टक लेने गई थी तब सारसिका चित्रकक्ष में थी या नहीं?' 'नहीं थी देवी!' 'क्या?'
'मैंने चौकीदार से पूछा तब उसने कहा कि सारसिका प्रात:काल राजमार्ग पर जा रही थी।
'अच्छा ......" दासी चली गई।
तरंगलोला के हृदय में सारसिका कहां गई होगी, यह प्रश्न चिन्ताकारक बन गया।
दंतधावन होने के बाद तरंगलोला परिवार के साथ पारणा करने गई।
भूख होने पर भी चिन्ता के कारण रुचि नहीं होती। तरंग का ध्यान सारसिका में था... रात को क्या हुआ होगा? क्या गत जन्म का पति आया था? क्या मेरी योजना निष्फल गई? क्या उनको जातिस्मृति नहीं हुई?
ज्यों-त्यों पारणे से निवृत्त होकर सभी अपने-अपने कक्ष में चले गए। तरंगलोला चित्रों वाले खंड में गई। उसने देखा, सभी चित्र व्यवस्थित ढंग से रखे हुए हैं...... परन्तु उसने एक नि:श्वास छोड़ा...... क्या मेरा यह प्रयत्न बालुका से तेल निकालने जैसा व्यर्थ सिद्ध होगा? ओह! सारसिका कब आएगी? इस प्रकार अनेक प्रश्नों के वर्तुल में फंसी हुई तरंगलोला विचारमग्न होकर एक ओर बैठ गई....... उसने वातायन की ओर देखा...... अरे! दिन का पहला प्रहर बीत चुका
पूर्वभव का अनुराग / ८९