Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ जीव कहां जाकर उत्पन्न होता है, यह कैसे जाना जा सकता है ? कौन जान सकता है?' तरंगलोला बोली-'सखी! तू यह बात क्यों भूल जाती है कि मैं पति के पीछे सती हुई हूं। सती का धर्म क्या है ? यदि मुझे मनुष्य जन्म मिला है तो मेरा यह विश्वास भी प्रबल हुआ है कि मेरे स्वामी भी मनुष्यरूप में ही जन्मे होंगे....... फिर भी यदि कर्मयोग से वे प्राप्त नहीं हुए तो मैं आजन्म कुंआरी रह जाऊंगी, परन्तु अन्य किसी के साथ पाणिग्रहण नहीं करूंगी.... अविवाहित रहकर मैं अपने पुरुषार्थ को आत्मोत्कर्ष में लगाऊंगी...' जीवन-मरण पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करूंगी.....' चक्रवाकी के भव में मैंने केवल प्रेम ही जाना था, परन्तु इस भव में मैं अज्ञान दशा में नहीं रही..... मैंने यह स्पष्ट रूप से जान लिया है कि प्रेम-संबंध से द्रोह करते-करते जीवन को उन्नत पुरुषार्थ में लगाना श्रेयस्कर होता है।' _ 'सखी! तेरा दर्दभरा वृत्तान्त सुनकर मैं भी मर्माहत हुई हूं। कर्म का विपाक कितना भयंकर होता है? कैसा होता है? प्राणी को कर्म भोगने ही पड़ते हैं...... परन्तु सखी! तू धैर्य से विचलित मत होना। मुझे विश्वास है कि भाग्य तेरे पर प्रसन्न होगा और तू अपने पूर्वभव के पति को प्राप्त कर सकोगी।' यह कहकर सारसिका ने तरंगलोला को सान्त्वना दी और सरोवर से कमलपुट में पानी लाकर तरंग के अश्रुमलिन आनन को स्वच्छ किया। उस कदलीकुंज से दोनों सखियां बाहर आई और जहां अपनी सखियों के साथ माता बतिया रही थी वहां आ पहुंची। __माता ने तरंगलोला की ओर देखा। तरंगलोला के नयन लाल थे.... मुंह म्लान हो गया था. वह तत्काल तरंग से लिपट कर बोली-'तरंग! क्या हुआ है तुझे? इस आनन्दमय क्षण में यह उदासी क्यों? तू आज कुम्हलाई कमलिनीसी लग रही है। क्यों?' मां का वात्सल्य और प्रेम देखकर तरंगलोला रोने लग गई। वह बोली-'मां! मस्तक में अत्यधिक पीड़ा है।' 'अरे! तूने पहले क्यों नहीं बताया? चल, अब हम घर चलते हैं। मैं तेरे साथ ही चलती हूं..... अब मुझे भी यहां रहना नहीं है।' यह कहकर सुनंदा ने घर जाने की तैयारी की। उसने तब अपनी सखियों की ओर देखकर कहा-'आप सब स्नान-भोजन आदि से निवृत्त होकर धीरे-धीरे घर की ओर आना...... एक आवश्यक कार्यवश मुझे शीघ्र ही घर पर जाना पड़ रहा है।' और कुछ समय पश्चात् सुनंदा तरंगलोला को साथ ले रथ में बैठी। उसके साथ-साथ कुछेक दासियां, सारसिका और सेवक भी रथ में बैठकर वहां से चल पड़े। ७४ / पूर्वभव का अनुराग

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148