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१२. पूर्णिमा की निशा उत्तर भारत में कौमुदी पर्व कार्तिकी पूर्णिमा को बहुत ठाट-बाट के साथ मनाया जाता था।
अभी कार्तिकी पूर्णिमा के आने में छह महीने शेष थे।
तरंगलोला का मन चित्रांकन के लिए विविध कल्पनाएं कर रहा था। चित्रांकन का उद्देश्य उसके भावों में उथल-पुथल मचा रहा था। वह एक कल्पना करती, वह मिटती। दूसरी कल्पना आती और वह कल्पना अन्यान्य बीसों कल्पनाओं को जन्म देकर मिट जाती। यह क्रम चला। एक दिन उसने मन में चित्रांकनों का ढांचा स्थिर कर लिया और चित्रांकनों के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने में मन लगाया। सारी सामग्री त्वरा से एकत्रित हो गई।
चित्रांकन के लिए एक विशेष खंड निर्धारित कर लिया गया। वहां सारी व्यवस्था कर दी गई। तरंगलोला के भाइयों ने जब चित्रांकनों की बात सुनी तो वे प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। एक दिन एक भावज ने चित्रकक्ष में आकर पूछा- 'बहिन! आप किस प्रकार के चित्रों का अंकन करना चाहती हैं।'
'भाभी! भावना तो बहुत मधुर है, यदि पूरी हो तो ।'
'जरूर पूरी होगी...' आप अपने उत्साह को मंद न होने दें..... आप चित्रकला में सिद्धहस्त हैं....... इस विशाल भवन में टंगे हुए आपके चित्र इतने सजीव हैं कि उन्हें देखते रहने का मन होता है। आप कौन-कौन से चित्र अंकित करेंगी?'
'प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर एक रसमयी कथा का चित्रांकन करना चाहती
'तब तो वह कथा किसी नर-नारी के स्नेह प्रसंग की होगी?'
तरंगलोला खूब हंसी। सारसिका बोली-'भाभी! नर-नारी के बिना संसार की कोई कथा लुभावनी नहीं होती. परन्तु कलाकार कल्पनाओं में ही विहरण करते हैं..... कल्पना कब किस दिशा में मुड़ जाए, कहा नहीं जा सकता।'
तरंगलोला ने सारसिका की ओर देखकर कहा–'सखी! मैं एक निश्चित ध्येय से आगे बढ़ेगी। कुछेक प्राकृतिक दृश्यों का जीवन्त चित्रण करना चाहती हूं..... और इन दृश्यों में एक मधुर वेदना से ओतप्रोत कथा भी चित्रित हो जाएगी...।'
‘मधुर वेदना?'
'हां भाभी! वेदना मात्र करुण होती है, किन्तु देखने में मनोज्ञ होने के कारण वह मधुर बन जाती है।' 'तो फिर उन दृश्यों की कल्पना तो मुझे बताएं' भाभी ने आग्रहपूर्वक कहा।
पूर्वभव का अनुराग / ७७