Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 73
________________ पास वाले कदली कुंज में चली गईं। ___ वहां सारसिका ने तरंग को एक शिलापट्ट पर बिठाया। उसके पीठ पर हाथ फेरती हुई वह बोली-'तरंग! तू चौंकी भी नहीं, मधुमक्षिकाओं ने तुझे नहीं काटा तो फिर अचानक तू मूर्च्छित कैसे हो गई? मूर्च्छित अवस्था में भी तेरी आंखों से अश्रु प्रवाह चल रहा था। सखी! रोग को सहलाना नहीं चाहिए। उसका पालनपोषण नहीं करना चाहिए। प्रारंभ में ही उसका प्रतिकार कर देना चाहिए.... अवश्य ही तेरे कोई आन्तरिक पीड़ा है कि तू जलाशय को देखते ही अव्यवस्थित हो जाती है..."तरंग। तुझे क्या हो गया था?' _ 'सखी! मैं सच कहती हं, मुझे वैसा कुछ भी नहीं हुआ था, न मैं चौंकी थी और न चक्कर ही आए थे।' ___ 'तो फिर मूर्च्छित कैसे हुई? मुझे तो लगता है कि तुझे अपस्मार नामक रोग हुआ है...... परन्तु यह रोग तेरे कैसे हो? क्यों हो? तू मानसिक चिंता से मुक्त है...." माता-पिता का तेरे पर अपार प्रेम है। तेरे सभी भाई तुझे देखते रहते हैं, तेरा ध्यान रखते हैं....... सभी प्रकार से तू सुखी है....... तो फिर यह कैसे हुआ । 'सखी! तू इतनी व्याकुल मत हो। मैं नीरोग और स्वस्थ हं... मेरी मूर्छा के पीछे कोई रोग होने की तू कल्पना मत कर...।' 'तो बता, और क्या कारण हो सकता है?' 'कारण बिना कार्य नहीं होता... परन्तु मैं कैसे बताऊं?' 'क्या तझे मेरा विश्वास नहीं है?' 'सखी! मेरा जितना विश्वास अपने आप पर है, उससे अधिक विश्वास है तेरे पर....' परन्तु बात अनोखी है, नहीं मानी जा सकने वाली बात है.....' ‘सारसिका! जीव के साथ अतीत के संस्मरण जुड़े रहते हैं और जब वे जागृत होते हैं तब मनुष्य अपना भान भूल जाता है। मैं भी ऐसे ही एक स्मृति के जाल में फंस गई थी...... स्मृतियां अत्यंत मधुर और एक दर्दभरी चिनगारी.....' _ 'तरंग! तू होश में बोल रही है या बेहाशी में? कैसी मधुर स्मृति और कैसी दर्दभरी चिनगारी!' 'पगली! मैं पूर्ण जागृत अवस्था में बोल रही हूं।' 'अच्छा स्मृति की बात बता।' तरंगलोला बोली- 'पूर्वजन्म के प्रसंग जो मेरे साथ जुड़े हुए थे, वे अचानक एक-एक कर उभरे। चक्रवाक युगलों को देखते ही मेरे मन में खलबली मच गई और मैं स्मृतियों में तदाकार हो गई। शास्त्रकार जिसे जातिस्मृति ज्ञान या पूर्वजन्म का ज्ञान कहते हैं, वह ज्ञान मेरे में जागृत हुआ और तब मेरे पूर्वजन्म का पूरा चलचित्र मेरे मानसपटल पर अंकित होने लगा......' पूर्वभव का अनुराग / ७१

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