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सौभाग्यपुर का नायक घटनाक्रम की पूरी जानकारी देकर दूसरे दिन घाट पर आ पहुंचा । परन्तु किशोर लुटेरों को कारागृह में डाल दिया।
और नौवें दिन वहां के महाराजा ने तेरह किशोरों को कठोर चेतावनी देकर कारागृह से मुक्त कर दिया।
इधर महापंडितजी की चिंता का कोई आर-पार नहीं रहा। गत आठ दिनों में पंडितजी ने पुत्र की खोज करने अनेक व्यक्तियों को चारों दिशाओं में भेजा, परंतु पुत्र का कहीं पता नहीं लगा। पंडितजी अत्यंत व्यथित हो गए। और उन्हें पुत्रविषयक अनेक बातें ज्ञात हई।
अवंती नगरी से आए हुए अतिथि पंडित भी शास्त्रचर्चा कर विदा हो गए।
अन्त में तेरहवें दिन रुद्रयश घर आ पहुंचा। उसके हाथ का घाव भर गया था, परन्तु दुष्ट कार्य का निशान छोड़ गया था।
पुत्र को घर आया देखकर पिता का क्रोध जागृत हो गया। उन्होंने क्रोध को नियंत्रित कर कहा-'रुद्रयश! इन तेरह-चौदह दिनों तक तू कहां था?'
'पिताजी! सौभाग्यपुर गया था।' 'वहां क्यों?' 'वहां एक उत्सव था।'
'उत्सव? असत्य कथन! सौभाग्यपुर में तो वर्ष में एक ही बार श्रावणी पूर्णिमा का उत्सव होता है...देख रुद्र! तेरी प्रवृत्ति ठीक नहीं है। तेरे हाथ में यह घाव क्या है?'
'मैं गिर पड़ा था.... _ 'झूठी बात! गिरने पर ऐसा घाव और निशान नहीं होता। यह तो किसी शस्त्र का घाव है... परन्तु चाहे तू कहीं भी गया हो..... अब मैं तुझे घर में नहीं रखंगा ।'
‘परंतु...।' _ 'रुद्र! झूठे व्यक्ति को सहारा देना महान् पाप है। यह पाप कर मैं तेरे दोष को पोषण देना नहीं चाहता। तुझे ढूंढने में मैंने अनेक प्रयास किए मुझे कुछ समाचार मिले हैं...... माधव तेरे दो-तीन मित्रों से मिला था और तू किसी डकैती में पकड़ा गया है, यह ज्ञात हुआ। ऐसे पुत्रों से तो अपुत्र रहना इष्टकारी है तू समग्र कुल के लिए कलंक है. माता-पिता अपनी संतान की दुष्ट प्रवृत्ति के साथ आंखमिचौनी नहीं कर सकते। जो मां-बाप आंखों के आगे परदा तान कर ममता के वशीभूत होकर सब कुछ सहन करते हैं वे अपने ही जीवन पर जबरदस्त अत्याचार करते हैं।'
रुद्रयश मौनभाव से खड़ा रहा। महापंडित बोले-'रुद्र! उस दिन तूने भांग पीने की बात कही थी....... परन्तु
पूर्वभव का अनुराग / ४९