Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 68
________________ 'तेरी मां समझ गई' कहकर ऋषभसेन ने पत्नी की ओर देखा। पुत्री ने मां की ओर मुड़कर कहा-'मां! मैं क्यों नहीं समझी?' 'गत रात्रि की चर्चा भूल गई?' 'ओह!' कहकर तरंगलोला उठ खड़ी हुई और चंचल हरिणी की भांति खंड से बाहर निकल गई। सुनंदा बोली-कैसी शर्मीली!' 'जब शरीर पर लज्जा का रंग आने लगे तब समझ लेना चाहिए कि कन्या विवाह के योग्य हो गई है।' सुनंदा ने बात को मोड़ देते हुए कहा-'तरंग ने जो कहा, क्या वह ठीक था?' 'हां, उसका अनुमान सही है। गांव के बाहर जो अपना उपवन है, वहां सप्तपर्ण के दो वृक्ष हैं। उपवन में एक सरोवर है, जिसमें कमल उगे हुए हैं। तरंग का सारा कथन प्रमाणित होता है। 'तो हमें एक बार उपवन में जाना है' सुनंदा बोली। 'खुशी से। परन्तु तरंग का क्या करेंगे ?' 'वह भी अपनी सखियों के साथ वहां आएगी।' 'परन्तु जलाशय को देखकर....' 'विगत सात वर्षों से हमने उसे जलाशयों से दूर रखा है। संभव है उसके मन से वह चमक मिट गई होगी।' और एक दिन पूरे ठाटबाट के साथ नगरसेठ ने बाह्य उद्यान में जाने का निश्चय किया। १०. स्मृति का संपुट सुनंदा ने जब पद्मवन में आने का निमंत्रण अपने सगे-संबंधियों की स्त्रीवर्ग को भेजा तो सभी ने निमंत्रण को हृदय से स्वीकार कर लिया। एक तो कौशांबी नगरी के कबेरपति नगरसेठ की पत्नी का निमंत्रण, और दूसरी वाहन, भोजन आदि की सारी व्यवस्था नगरसेठ की ओर से...... तीसरा स्त्रीवर्ग को इतने लंबे समय तक, लगभग तीन प्रहर तक स्वतंत्र रूप से विचरण करने का अवसर इन तीनों कारणों के कारण सभी ने निमंत्रण को आशीर्वाद माना। _ और जब उषा की मधुर वेला में सभी पद्मवन की ओर प्रस्थित हुए तब चालीस रथों का काफिला एक साथ निकल पड़ा। प्रभात होने से पूर्व सभी पद्मवन में पहुंच गए। एक रथ में तरंगलोला और सारसिका थी..... साथ में परिचारिकाओं का यूथ था...... रक्षक थे.... और वहां पहले से ही पहुंचे हुए ६६ / पूर्वभव का अनुराग

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