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अभी तो केवल उषारानी ने ही अपना पल्ला बिछाया था. यह तो अरुण के आगमन की सूचना है...... यौवन की उदग्रता बदरूप हो सकती है...... तारुण्य की तेजस्वी रेखाएं अंग-प्रत्यंग में उभर आती हैं और मन कल्पना की पांखों से सतत उड़ता रहता है!
मानव मात्र की यौवन की उदग्रता ऐसी ही उष्मा भरी होती है...... यह उष्मा जलाती नहीं, चंचल बनाती है।
रात्रि का समय प्रारंभ हो चुका था। सारसिका को एक रथ में रवाना कर तरंगलोला मां के पास गई और प्रणाम कर बोली-'मां! आज प्रतिक्रमण ।'
'अरे, आकाश की ओर तो देख, प्रतिक्रमण का समय तो कभी का बीत चुका है बेटी!' कहकर मां ने उसे पास में बिठाया और कन्या की ओर घूरती हुई नि:श्वास डाला। यह सुनकर तरंगलोला बोली-'मां! क्या हुआ?'
'कुछ नहीं...... 'तो फिर नि:श्वास क्यों मां?' 'तुझे देखकर.....'
'मुझे तो तुम रोज देखती हो...... मां! मुझे बताओ, नि:श्वास क्यों डाला? नहीं तो मुझे सारी रात नींद नहीं आएगी।'
‘बात में कोई सार नहीं है......यह तो मेरे मन की दुर्बलता है।' 'मैं कुछ समझी नहीं... दुर्बलता कैसी ?'
मां ने कन्या के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा–'तरंग! तू मेरी अन्तिम सन्तान है...... अति सुंदर है...... और तू यमुना देवी के वरदान से जन्मी है..... कभीकभी मन में आता है कि जिस कन्या प्राप्ति के लिए तपस्या की थी, वह कन्या पराई बन जाएगी... मुझे स्वयं अपने हाथों से कन्यादान करना होगा...'
'मेरा दान क्यों करना पड़ेगा? मैं कहीं नहीं जाऊंगी......'
'बेटी! पुत्री तो पर घर की स्थापना करने वाली होती है...... तेरे पिताजी ने आज ही एक दूत को राजगृह की ओर भेजा है...... मात्र लड़कों को देखने के लिए.... किन्तु मेरी इच्छा तो यही है कि इसी गांव में उत्तम कुल में वर की खोज की जाए। यहां कोई कमी तो है नहीं, तो फिर बाहर क्यों खोज की जाए? गांव में तू मेरी आंखों के सामने तो रहेगी ।'
तरंगलोला ने हंसते हुए कहा-'मां! आपकी ममता का कोई मूल्य नहीं...... किन्तु आप व्यर्थ चिन्ता न करें... मैं आपकी छाया का त्याग कर कहीं नहीं जाना चाहती......'
___ 'तरंग! ऐसा विचार मत करना। नारी स्वभावत: समर्पण की जीवंत प्रतिमा है....... पिता का घर छोड़कर ससुराल जाती है.....परायों को अपना बनाती है..... अपनी शिकायत किसी के समक्ष नहीं करती और अपनी प्रिय कन्याओं ६४ / पूर्वभव का अनुराग