Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ तू किस पानागार में जाता है वह मुझे ज्ञात हो गया है...... तेरे मित्र कैसे हैं, यह भी मैं जान चुका हूं...तू जुआ खेलता है और चोरियां करता है, यह बात भी मेरे से गुप्त नहीं रह सकी। यह सब जानकर मैंने निश्चय किया है कि जिस दिन तू इन दुष्ट और कुल-कलंकी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर पश्चात्ताप की अग्नि से विशुद्ध होकर आएगा उसी दिन मैं तेरा सत्कार करूंगा. तब तक तू इस भवन की ओर आंख उठाकर भी मत देखना।' रुद्रयश खड़ा ही रहा। वह बिना उत्तर दिए ही वहां से चलता बना । महापंडित ने एक नि:श्वास डाला। अपनी स्वर्गस्थ पत्नी की स्मृति कर उन्होंने मन ही मन कहा-'देवी! मुझे क्षमा करना। मेरे लिए इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग नहीं था। फिर भी मैं चाहता हूं कि रुद्र पश्चात्ताप की अग्नि में विशुद्ध बने।' ___ जब आधार खिसक जाता है तब ही मनुष्य को आधार का महत्त्व ज्ञात होता है। पिताजी के चरण छुए बिना, अपने दोषों की क्षमा-याचना किए बिना रुद्रयश अपने ही अहंभाव से बिना कुछ सामान लिये भवन से यों ही निकल गया। परन्तु जाए कहां? क्या अन्य नगरी में जाकर भाग्य की परीक्षा की जाए? वह कोई निर्णय नहीं ले सका। वह द्यूतगृह में गया। उसने वहां सौ मुद्राएं संचित कर रखी थी। उनको लेकर इस नगरी का त्याग कर देना है, यह उसने सोचा था.. परन्तु द्यूतगृह में जाने के बाद उसका विचार बदल गया। उसने सोचा, एक बार जुआ खेलकर, और अधिक मुद्राएं प्राप्त कर फिर नगरी को छोड़ देना है। परन्तु जुआ एक ज्वाला है। उसके द्वारा जला जा सकता है, धनी नहीं बना जा सकता। चार दिनों तक वह उसी द्यूतगृह में पड़ा रहा...... सौ स्वर्ण मुद्राओं में से एक शून्य कम हो गई..... अब उसके हाथ केवल दस स्वर्ण मुद्राएं रहीं। उसने अपने तीन साथियों के साथ एक और डकैती की योजना बनाई ...... किन्तु किसी साथी ने सहयोग देना स्वीकार नहीं किया। और एक दिन वह प्रात:काल जल्दी उठकर मात्र दस स्वर्ण मुद्राओं के साथ साकेत जाने के लिए विदा हो गया। स्वयं ब्राह्मण था, इसलिए मार्ग में भोजन तो मिल ही जाता। पांचवें दिन वह एक मध्यम नगरी में पहुंचा। यह नगरी उसे अच्छी लगी....' उसने सोचा, इस नगरी में छोटी-मोटी चोरी कर लूं तो मार्ग में अर्थ की कठिनाई नहीं रहेगी। यह सोचकर वह एक पांथशाला में रहा..... दो दिन तक उसने उस नगरी के मार्गों की अवगति की, आने-जाने के छोटे-बड़े रास्ते जान लिये और एक जौहरी की दुकान के ताले तोड़कर चोरी करने का निश्चय कर लिया। तीसरे दिन वह एक साथी की खोज में एक पानागार में घुसा पानागार ५० / पूर्वभव का अनुराग

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