Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 54
________________ 'ओह! तू लगता तो है काम करने वाला, परन्तु तुझे पहले विश्वास उत्पन्न करना होगा। ' 'कहिए 'हम सभी आज ही इस नगरी में आए हैं। तू इस नगरी में चोरी कर हमें बता। फिर हम तुझे अपनी टोली में मिला लेंगे।' 'एक साथी की आवश्यकता होगी 'तूने कौन-सा स्थल चुना है चोरी के लिए ?' 'मैंने एक जौहरी की दुकान को निशाना बनाया है । ' 'बहुत साहसिक लगते हो। परन्तु देख लो, हमारे साथ रहने के अकेले नहीं रह सकोगे हम एक विशेष कार्य के लिए आए थे। अपने अड्डे की ओर जा रहे हैं। हमारा स्थान एक अभेद्य नगरी जैसा है मेरे सभी साथी अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं। दुनिया की कोई शक्ति हमारे अड्डे को प्राप्त नहीं कर सकती। और, हमारे नियम बहुत कठोर हैं। ' 'मैं उनकी प्रतिपालना करूंगा। बताएं 'हमारी टोली में आने वाला वहां से छिटक नहीं सकता।' 'स्वीकार है' 'चोरी में जो धन प्राप्त हो वह सभी का होगा से अपना धन नहीं रख सकता । ' 'मंजूर है। 'मदिरापान, मौज-मस्ती की कोई रोक-टोक नहीं है समय पूर्ण सावधान रहना होता है।' 'यह भी मेरी वृत्ति के अनुकूल है।' 'तुम कल हमारे साथ चलना बाद तुम अब हम वहां नहीं है।' सरदार बोला । परन्तु कोई स्वतंत्र रूप परन्तु कार्य के ऐसे गांव में चोरी करने की आवश्यकता 'तो फिर मैं विश्वास कैसे दिला पाऊंगा ?' सरदार विचार करने लगा। कुछ क्षणों बाद बोला- 'आज मध्य रात्रि के बाद तुम मेरे चार साथियों को साथ लेकर जाना और अपनी शक्ति का परिचय देना । कल तो हम यहां से रवाना हो जाएंगे।' 'जैसी आपकी आज्ञा रुद्रयश तैयार था। और कुछ समय पश्चात् सरदार के चार साथियों के साथ रुद्रयश चोरी करने निकल पड़ा। सभी बाजार बंद हो गए थे। राज्य के कुछ सैनिक पहरा दे रहे थे । वे बाजारों में चक्कर लगाते और इधर-उधर झांककर चले जाते । रुद्रयश अपने साथियों के साथ उस जौहरी की दुकान पर पहुंचा। उसने ५२ / पूर्वभव का अनुराग

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